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को महत्वपूर्ण समझा था । उन्होंने लिखा है कि जब तक कोई गुरु को नहीं पहचानता उसके और परमात्मा के मध्य अन्तराल बना ही रहता है । जब पहचान लेता है तो जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं। उनका मध्यन्तर मिट जाता है । जायसी की मान्यता है कि यह अन्तर माया जन्य ही है। भैय्या भगवतीदास को पूरा विश्वास है कि सतगुरु के वचनों से मोह विलीन होता है और प्रात्मरस प्राप्त होता है । बनारसीदास ने गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया है । मोह जन्य बेचैनी दूर होने का एकमात्र उपाय गुरु का आदेश है । यदि आत्मा 'अलख प्रखय निधि लूटना चाहती है तो उसे गुरु की सवारी से लाभान्वित होना ही चाहिए। उनका कथन है, “गुरु उपदेश सहज उदयागति, मोह विकलता छूटे । कहत बनारसि है करुनारसि अलख अखयनिधि लूटै । इस घट में सुधा सरोवर भरा है । जिससे सब दुख विलीन हो जाते हैं। इस सरोवर का पता लगना श्रावश्यक है । वह सतगुरु से लग सकता है। सतगुरु भक्ति से प्रसन्न होते हैं । उन पर मन केन्द्रित करना पड़ता है । कवि विनय विजय ने लिखा
"सुधा सरोवर है या घट में, जिसतें सब दुख जाय । विनय कहे गुरुदेव दिखावे, जो लाऊ दिल ठाय ॥ प्यारे काहे कू ललचाय ॥ *
आत्मरस ही सच्ची शांति है । वही अलख प्रखय निधि है । वह अनुभूति
के बिना नही होता । ब्रह्म की, भगवान की या परमात्मा की अनुभूति ही आत्मरस है । अनुभूति के बिना लाखों करोड़ों भवों में जप-तप भी निरर्थक हैं। एक स्वांस
१. जब लगि गुरु को महान चीन्हा ।
कोटि अन्तरपट बीचहि दीन्हा || जब चीन्हा तब और न कोई ।
तब मन जिउ जीवन सब सोई ।।
पद्मावत, जायसी, का० ना० प्र० सभा, काशी।
२. सतगुरु वचन धारिले अब के, जाते मोह विलाय ।
तब प्रगटै प्रातमरस भैया, सो निश्चय ठहराय ॥
परमार्थ पद पक्ति, भैया भगवतीदास, २५ वां पद, ब्रह्मविलास, पृ० ११८ |
३. भ्रष्टपदीमल्हार, ८ वां पद्य बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २३९ ।
४. 'प्यारे काहे कू' ललचाय' शीर्षक पद, विनयविजय, मध्यात्मपदावली, भारतीयज्ञान
पीठ, काशी, पृ० २२१ ।
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