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जैन - समाधि और समाधिमरण
'समाधि' शब्द की व्युत्पति
समाधीयते इति समाधि : । समाधीयते का अर्थ है - 'सम्यगाधीयते एकाग्रीक्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र सः समाधिः ।' अर्थात् विक्षेपों को छोड़कर मन जहां एकाग्र होता है, वह समाधि कहलाती है । 'विसुद्धिमग्ग में 'समाधान' को ही समाधि माना है, और 'समाधान का अर्थ किया है - 'एकारम्मणे चित्तचेतसिकानं समं सम्मा च प्राधानम्' – २ अर्थात् एक श्रालम्बन में चित्त और चित्त की वृत्तियों का समान और सम्यक् प्राधान करना ही समाधान है । जैनों के 'अनेकार्थ निघण्टु' में भी 'चेतसश्च समाधानं समाधिरिति गद्यते कहकर चित्त के समाधान को ही समाधि कहा है । 'सम्यक् प्राधीयते' और 'सम्यक् श्राधान' में प्रयोग की भिन्नता के अतिरिक्त कोई भेद नहीं हैं। दोनों
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१. मिलाइये, पातञ्जल योगसूत्र, व्यास भाष्य १ / ३२, मेजर बी० डी० वसु-सम्पादित, इलाहाबाद, १९२४ ई० ।
२. प्राचार्य बुद्धघोष, विसुद्विमग्ग, कौसाम्बी जी की दीपिका के साथ, तृतीय परिच्छेद, पृष्ठ ५७, बनारस ।
३. देखिये, घनञ्जयनाममाला, सभाष्य श्रनेकार्थ निघण्टु तथा एकाक्षरी कोश, १२४ वाँ श्लोक, पृ० १०५, पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी-सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०१२
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