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निश्चित है कि उस मंत्र का जाप करने से यह जीव इन्द्र की लक्ष्मी को पा सकता है।'
थी जिनप्रभसूरि ने 'विविध तीर्थकल्प' के 'पंच-परमेष्ठी नमस्कार कल्प' में स्वीकार किया है, "इस मंत्र की प्राराधना करने वाले योगीजन, त्रिलोक के उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं । यही तक ही नहीं, किन्तु सहस्त्रों पापों का सम्पादन करने वाले तिर्यञ्च भी इस मंत्र की भक्ति से स्वर्ग में पहुंच जाते हैं।' जैनाचार्यों ने 'रणमोकार मंत्र' की शक्ति को देवता कहा है। उसमें आध्यात्मिक, माधि भौतिक और आधिदैविक तीनों ही प्रकार की शक्तियां सन्निहित हैं। वह मोह के दुर्गमन को रोकने में पूर्ण रूप से समर्थ है। जैन परम्परा में यह मंत्र अनादि निधन माना जाता है। वैसे भगवान् महावीर से पहले 'चौदह पूर्वो' का अध्ययन-अध्यापन प्रचलित था। भगवान ने अपने गणधरों को इनकी विद्या प्रदान की थी। उनमें 'विद्यानुवाद' नाम के पूर्व का प्रारम्भ णमोकार मंत्र
१. प्रापद्देवं तव नुतिपदैर्जीवकेनोपदिष्टः,
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यं । कः संदेहो यदुपलभते वासवश्री प्रभुत्त्वं, जल्पजाप्यमणिभिरमलत्वन्नमस्कार चक्र ।। एकीभावस्तोत्र, १२वां श्लोक, काव्यमाला सप्तम्गुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई,
पृ० १६। २. एतमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिनः । त्रैलोक्याऽपि महीयन्तेऽधिगताः परमं पदम् ।
कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । अमुमन्त्रं समाराध्य तिर्यञ्चोऽपि दिवंगताः।। जिनप्रभसूरि, पंचपरमेष्ठि नमस्कारकल्प, विविधतीर्थकल्प, मुनिजिनविजय सम्पादित,
शान्तिनिकेतन, १९३४ ई०, प्रथम भाग, पृ० १०८, श्लोक ५-६ । ३. स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रियततो मोहस्य सम्मोहनं।
पायात्पंचनमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ।।
नमस्कार मंत्र, तीसरा श्लोक, धर्मध्यानदीपक, पृ० २। ४. "The original doctrine was contained in the Fourteen
Purvas (old texts), which Mahavira himself had taught to his Ganadharas." Dr. Jagdish chandra Jain, Ancient India as depicted in Jain Canons, New book Company Ltd., Bombay, 1947. P.32. .
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