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श्री द्यानतराय ने भी भगवान् जिनेन्द्र को शांति प्रदायक ही माना है । वे उनकी शरण में इसलिये गये हैं कि शांति उपलब्ध हो सकेगी । उन्होंने कहा "हम तो नेमिजी की शरण में जाते हैं, क्योंकि उन्हें छोड़कर और कहीं हमारा मन भी नहीं लगता । वे संसार के पापों की जलन को उपशम करने के लिए बादल के समान हैं। उनका विरद भी तारन तरन है । इन्द्र फणीन्द्र और चन्द्र भी उनका ध्यान करते हैं। उनको सुख मिलता है और दुःख दूर हो जाता है । " " यहाँ बादल से भरने वाली शीतलता परम शांति ही है । शांति को ही सुख कहते हैं और वह भगवान् नेमिनाथ के सेवकों को प्राप्त होती ही है । द्यानतराय की दृष्टि में भी राग-द्वेष ही अशांति है और उनके मिट जाने से ही 'जियरा सुख पावैगा', अर्थात् उसको शांति मिलेगी। अरहंत का स्मरण करने से राग-द्वेष विलीन हो जाते हैं, अतः उनका स्मरण ही सर्वोत्तम है । द्यानतराय भी अपने बावरे मन को सम्बोधन करते हुए कहते हैं, "हे बावरे मन ! अरहंत का स्मरण कर । ख्याति, लाभ और पूजा को छोड़कर अपने अन्तर में प्रभु की लगा। तू नर-भव प्राप्त करके भी उसे व्यर्थ में ही खो रहा है और विषयभोगो को प्रेरणा दे-देकर बढ़ा रहा है । प्रारणों के जाने पर हे मानव ! तू पछतायेगा | तेरी श्रायु क्षण-क्षरण कम हो रही है। युवती के शरीर, धन, सुत, मित्र, परिजन, गज, तुरंग और रथ में तेरा जो चाव है, वह ठीक नहीं है । ये सांसारिक पदार्थ स्वप्न की माया की भाँति हैं, और आँख मीचते मीचते समाप्त हो जाते है । अभी समय है, तू भगवान् का ध्यान कर ले और मंगल गीत गा ले । और अधिक कहाँ तक कहा जाये फिर उपाय करने पर भी सघ नहीं सकेगा ।"२
अब हम नेमिजी की शरन ।
और ठौर न मन लगत है, छांडि प्रभु के शरण ॥ १ ॥ सकल भवि अघ दहन वारिद, विरद तारन तरन । इन्द्र चद फनिंद ध्यावं, पाय सुख दुख हरन || २ || द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, पहला पद, पद २ । २. अरिहन्त सुमर मन बावरे ।
ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लो लाव रे । नर भव पाय अकारथ खोवै विषय भोग जु बढ़ावरे । प्रारण गये पछिते हैं मनवा, छिन छिन छीजं भावरे । युवती तन धन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ
चावरे ।
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