________________
0000
100
जाने लगे तो तुलसीदास का 'राम चरितमानस' भी साहित्य क्षेत्र में प्रविवेच्य हो जायेगा और जायसी का पदुमावत भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा । " -- जैसे व्यर्थ-सा होकर रह गया है ।
हिन्दी के प्रादिकाल में जैन साहित्य विशेषतया तीन रूपों में प्राप्त होता है-चरिउ, रास और फागु । चरिउ भौर रास में प्रबन्धात्मकता होती है और किसी-न-किसी कथा का आधार रहता है । फागु काव्य नितांत गेय होते हैं, किन्तु उनमें भी कथा-सूत्रता तो रहती ही है । 'जिरगदत्त चरित' हिन्दी के पादिकाल की एक प्रसिद्ध रचना है । इसके रचयिता कवि रल्ह ने इसकी रचना वि० सं० १३५४ (सन् १२६७) में की थी। उस समय अलाउद्दीन खिलजी का राज्य था । रल्ह का पूरा नाम राजसिंह था । इनके पिता का बचपन में स्वर्गवास हो गया था । माता ने पालन-पोषण किया । जिरणदत्त की प्रसिद्ध कथा लोक- प्रचलित थी। जैन कवि इस कथा को श्राधार बना कर प्राकृत, संस्कृत मौर अपभ्रंश में भी काव्य रचना करते रहे हैं । अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि लाखू (लक्ष्मण) की ''जिरणयत्त कहा' जैन समाज में अधिक प्रिय थी । रल्ह ने भी इस कथा को पढ़ा था । उन्होंने श्रादिकालीन हिन्दी में, ५४४ चौपई छन्दों में, इसकी रचना की । अब यह ग्रन्थ, महावीरभवन- शोध संस्थान, जयपुर से प्रकाशित हो गया है । इसकी भूमिका में डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है, "जिरगदत्तचरित अपभ्रंश और हिन्दी के बीच की कड़ी है। अपभ्रंश भाषा ने धीरे-धीरे हिन्दी का रूप किस प्रकार लिया, यह इस काव्य से अच्छी तरह जाना जा सकता है। इसमें हिन्दी के ठेठ शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । २" एक दूसरे स्थान पर उन्होंने लिखा कि"हिन्दी शब्दकोश के विद्वानों को इस काव्य में कितने ही नये शब्द मिलेंगे, जिनका सम्भवतः अभी तक अन्य काव्यों में उपयोग नहीं हुआ है ।" यदि ऐसे शब्द व्युत्पत्ति सहित ग्रन्थ के अन्त में दे दिये जाते तो पाठक अधिक लाभान्वित होते । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी उनका मूल्यांकन हो पाता। इस ग्रन्थ का एक उद्धरण देखिए
ताहं जपइ राय सुन्दरीय ।
परऐसिय पाहुराई जाहि नाहि, मइ तुह निवारिउ ।
तुब देखि मोहिउ जष्णु, बसहूं महं जन तुह जु मारिउ ॥
१. 'हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल', बिहार- राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, पृ० ११ । २. जिरणदत्त चरित, महावीर भवन, जयपुर, १९६६, भूमिका, पृ० २३ । ३. देखिए वही, पृ० ३८ ।
1655555555555665