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कवियों ने नेमिनाथ और राजुल के सम्बन्ध में अनूठे पद्यों की रचना की है, नेमीश्वर मूक पशुनों के करुरण ऋन्दन को सुनकर तोरण द्वार से वापस लौट गये । उस समय की राजीमती की बेचैनी का सफल चित्र हेमविजय ने खींचा है
कहि राजीमती सुमती सखियानकू, एक खिनेक खरी रहुरे । सखिरी सगिरी गुरी मुही बाहि करति बहुत इसे निहुरे ||
ही तब कही जबही, यदुराय कू जाय इसी कहुरे । मुनि 'म' के साहिब नेमि जी हो, अब तोरन तें तुम्ह क्यू' बहुरे || "
राजशेखरसूरि का नेमिनाथफागु, हर्षकीत्ति का नेमिनाथ राजुलगीत, विनोदीलाल का नेमिराजुल बारहमासा, नेमिव्याह, राजुलपच्चीसी, नेमजी रेखता और लक्ष्मीवल्लभ का नेमिराजुल बारहमासा प्रसिद्ध कृतियाँ हैं । बारहमासा विरह के सच्चे निदर्शन हैं। उनमें हिन्दी के बारहमासों की भाँति न तो परम्परानुसरण की जड़ता है, न अतिरंजना की कृत्रिमता और न उबा देनेवाली भावfगमा । विरहिणी के पवित्र भावों की व्याकुलतापरक अभिव्यक्ति ही जैन बारहमास की प्रमुख विशेषता है ।
अरहंत के रूप में जैन कवियों ने सगुण ब्रह्म की उपासना की है। अरहंत समवशरण में विराजकर, अपनी दिव्यध्वनि से विश्व के लोगों का उपकार करते है, अत: जैन श्राचार्यो ने अपने प्रसिद्ध 'मोकारमत्र' में श्ररहत को सिद्ध से भी पहले स्थान दिया है। अरत की भक्ति में सहस्रों स्तुति स्तोत्रो की रचना हुई है । भद्रबाहुस्वामी का रचा हुआ' उवसग्गहर स्तोत्त' अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है । भद्रबाहुस्वामी का समय वी० नि० मं० १७७ माना जाता है । अभी तक हिन्दी के विद्वानों की धारणा थी कि अपभ्रंश में स्तुति स्तोत्रों का निर्माण नही हुआ और इसी आधार पर उन्होंने हिन्दी के सगुण साहित्य को अपभ्रंश से यत्किचित् भी प्रभावित नहीं माना है । अव जैन भण्डारों की खोज के फलस्वरूप अपभ्रंश के अनेक स्तोत्र-स्तवनों का पता चला है। इससे हिन्दी भक्ति-काव्य की पूर्व परम्परा के अनुसन्धित्सुओं को सोचने के लिए नई सामग्री उपलब्ध हुई है ।
१. मिश्रबन्धु - विनोद, प्रथम भाग, लखनऊ, पृ० ३६८ ।
२. भगवत् पुष्पदंत भूतबलि, पटवडागम, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, अमरावती, वि० स० १६६६, पृ० ५३-५४ ।
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