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भावों में अनुभूति की गहराई है। कहीं छिछलापन नहीं, कहीं उद्दाम वासनामों का नग्न नृत्य नहीं । केवल शांत रस के प्रमुख रस होने से क्या हुमा । प्रबन्ध काव्य में कोई-न-कोई रस तो मुख्य रस होगा ही। उसकी पृष्ठ भूमि में समूचा मानव जीवन गतिशील रहता है, यह प्रबन्ध काव्य की कसौटी पर खरे उतरते हुए भी शांत रस का सुनिर्वाह जैन काव्यों की अपनी विशेषता है और वह वीतरागी परिप्रेक्ष्य में ही ठीक से समझी जा सकती है ऐसा होने पर ही उसका प्राकलन भी ठीक हो सकता है।
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