SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 0004 एक स्थान पर लिखा है, "सुहानिन के हृदय में नियुं ब्रह्म की अनुभूति से ऐसा प्रेम जगा है कि अनादिकाल से चली आाने वाली प्रज्ञान की नींद समाप्त होगई । हृदय के भीतर भक्ति के दीपक ने एक ऐसी सहज ज्योति को प्रकाशित किया है, जिससे घमण्ड स्वयं दूर हो गया और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गई। प्रेम एक ऐसा अचूक तौर है जिसके लगता है, वह ढेर होजाता है । वह एक ऐसा वीणा का नाद है, जिसको सुनकर श्रात्मारूपी मृग तिनके तक धरना भूल जाता है। प्रभु तो प्रेम से मिलता है, उसकी कहानी कही नहीं जो सकती भक्त के पास भगवान् स्वयं प्राते हैं, भक्त नहीं जाता । जब भगवान् प्रांता है, तो भक्त के आनन्द का पारावार नहीं रहता । मानन्दघन की सुहागिन नारी के नाथ भी स्वयं प्राये हैं और अपनी 'तिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है । लम्बी प्रतीक्षा के बाद माये नाथ की प्रसन्नता में, पत्नी ने भी विविध भांति के गार किये हैं। उसने प्रेम-प्रतीति, राम और रूचि के रंग में रंगी साड़ी धारण की है, भक्ति की महंदी रांची है और भाव का सुखकारी अंजन लगाया है । सहज स्वभाव की चूड़ियाँ पहनी हैं और पिरीति का सरी कंगन धारण किया है । ध्यान रूपी उरवसी गहना बक्षस्थल पर पड़ा है और पिंग के मुख की माला को गले में पहना है। सुरत के सिन्दूर से मांग को सजाया है और निरत की वेणी को श्राकर्षक ढंग से गूंथा है। उसके घर त्रिभुवन को सबसे अधिक प्रकाशमान ज्योति का जन्म हुआ है । वहाँ से अनहद का नाद भी १. सुहागरण जागी अनुभव प्रीति, सुहागरण || नींद प्रज्ञान अनादि की मिटि गई निज रीति । सुहा० ॥ १ ॥ + घट मन्दिर दीपक कियो, सहन सुज्योति सरूप 1 आप पराई बाप ही छानत वस्तु ऋतूप | सुहा० ॥ २ ॥ कहाँ दिखावु और कू, कहा समझाऊ भोर 4 : तीर चूक है'' का, सासी रहे और सुहा० 11 ३ 11 'नाद - विलुंडो प्रारंण कूँ, गिनेन तृण मृग श्रव । आनन्दघन प्रभु प्रेम का, प्रकथ कहानी वोय ।। सुहा० ।। ४ ।। मानन्द घनपदसंग्रह, महात्मा मानन्दघन, मध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई चौथा पद, पृ० ७ । फफफफफफ 555555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy