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उठने लगा है । अब तो उसे लगातार एकतान में पिय-रस का मानन्द उपलब्ध हो
ठीक उसी भांति बनारसीदास की नारी के पास भी निरंजन देव स्वयं प्रकट हुए हैं। वह इधर-उधर भटकी नहीं, उसने अपने हृदय में ध्यान लगाया पौर निरंजन देव मा गये । अब वह अपने खंजन-जैसे नेत्रों से उसे पुलकायमान होकर देख रही हैं पौर प्रसन्नता से भरे गीत गा रही है। उसके पाप मोर भय दूर भाग गये हैं । परमात्मा-जैसा साजन साधारण नहीं है, वह कामदेव जैसा सुन्दर और सुधारस-सा सधुर है । वह कर्मों का क्षय कर देने से तुरन्त मिल जाता है।
१. पाज सुहागन नारी ॥ मवधू आज० ।।
मेरे माथ आप सुध लीनी, कीनी निज अंगधारी ॥ प्रवधू ॥१॥ प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे जिन सारी। मेंहदी भक्ति रंग की रांची, भाव अंजन सुखकारी ।। अवधू० ॥२॥ सहज सुमाव चूरियों पेनी, थिरता कंगन मारी। ध्यान उरवसी उर में राखी, पिय गुनमाल अपारी ॥ अवधू० ॥३॥ सुख-सिन्दूर मांग रंग राति, निरते बेनि संभारी। उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन, पारसी केवल कारी ॥ प्रब० ॥ ४ ॥ उपजी घुनि प्रजपा की अनहद, जीत नगारे वारी। झड़ी सदा मानन्दधन बरखत, बिन मोरे इक तारी ॥ अवधू० ॥ ५ ॥
वही, २० वां पद । २. म्हारे प्रगटे देव निरंजन ।
प्रटको कहाँ कहाँ सिर मटकत कहा कहूं जन-रंजन ।। म्हारे० ॥१॥ खंजन हग, हग-नयनन गाऊ चाऊ' चितवत रंजन । सजन घट अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन ।। म्हारे ।। २ ॥ वो ही कामदेव होय, कामघट वो ही मंजन । और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन ॥ म्हारे० ॥३॥
बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, 'दो नये पद', पृ. २४० क ।
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