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CATIYA
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उपयुक्त बात यहाँ भी कही जा सकती है, इसके अतिरिक्त, पुराने कथानक में नवीनता खोजना प्रौचित्य नहीं है । .
मृगावती और उसके पुत्र की कथा प्राचीन है । उसी को प्राधार बनाकर कवि ने सुन्दर भाव अभिव्यक्त किये हैं। विषय-सुखों में डूबे पुत्र को अकस्मात् पूर्वभवों का स्मरण होता है और उसके जीवन की दिशा बदल जाती है। वह सोचता है कि भोग विष-तुल्य है। स्त्री-यौवन और लावण्य चपल हैं, किसी का साथ नहीं देते । धर्म को छोड़कर और कोई गति नहीं है
मोग भोगविय विस सरिस मम प्रइयणा नरय गइ तिरिय गइ वेयरणा कारण । जोइ जस रेसि जगि जीबु सवि दुह सहइ संजह देह नह मशिय खरण खरण इकरहइ । चपल तणु चपल षणु चपल जुम्वरस भरो चपल लाइन्न जीबीउ चंचल तरो । धनु घण सयणु सहु रहइ पूठि घरे जीव एक्कालउ जाइ जम्मतरे । भुत्तवि सफलह जिम साहु मह सुन्दरो
विसयसुह नेम परिणाम नह मणहरो॥८-१०॥" भाषा सरल और लयात्मक है। अनुप्रास की छटा और ललित गुण दृष्टव्य हैं । जीवन का अर्थ केवल भोग नहीं है, प्राध्यात्मिकता की ओर बढ़ना ही उसका लक्ष्य है । निर्वेद इस काव्य का स्थायी भाव है। संसार की असारता पर अधिक बल दिया है । कुल ४२ छंद हैं । हिन्दी के आदिकाल की कृतियों में इसकी गणना होनी ही चाहिए ।
अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ४ में, मैंने कविवर रइधु का 'सोऽहं' गीत देखा था। मेरी दृष्टि में वह प्राचीन हिन्दी की कृति है। डॉ. राजाराम जैन ने रइधु के 'जीवन और कृतित्व' पर एक शोध प्रबन्ध लिखा है। उसमें उन्होंने रइध का रचना-काल वि० सं० १४६८-१५३० माना है। इस दृष्टि से वे १५वीं-१६वीं शताब्दी के कवि थे। डॉ. राजारामजी ने उन्हें अपभ्रंश का अन्तिम महान् कवि सिद्ध किया है। रइधू ने लगभग २३ कृतियों की रचना की। सभी अपभ्रंश भाषा में निबद्ध थीं । मेरी दृष्टि में १७वीं शती तक अपभ्रंश में ! कुछ-न-कुछ लिखा जाता रहा । अपभ्रंश-बहुल पुरानी हिन्दी भी साथ ही चली।।