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मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियों
की शिक्षा-दीक्षा
कवि सधारु (वि० सं० १४११) ने अपने प्रद्युम्नचरित्र में लिखा है, "मैंने एरछ नगर में बस कर यह चरित्र सुना और मैं इस पुराण की रचना में समर्थ हो सका । जो कोई मनुष्य इसे पढ़ेगा वह स्वर्ग में देव होगा और वहाँ से चयकर मुक्ति रूपी स्त्री वरेगा । जो सुनेगे उनके भी अशुभ कर्म दूर हो जायेंगे।" इससे स्पष्ट है कि उस समय जैन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र जैन मन्दिरों में होने वाले शास्त्र-प्रवचन थे । इन प्रवचनों में ऐसे श्रोता भी पाते थे जो न पढना जानते थे और न लिखना, केवल श्रवण-मात्र से ही वे जैन सिद्धांत में नैपुण्य प्राप्त कर लेते थे । जो श्रोता पढ़े-लिखे होते थे, वे पण्डित ही बनते थे। पद्य-मय पुराणादि के सुनने से उनमें कवित्व शक्ति का भी उन्मेष होता था। सधारु ने भो ऐसे ही किसी शास्त्र-प्रवचन में प्रद्युम्न चरित्र सुना था।
श्वेताम्बर आचार्य होनहार बालकों को कम उम्र में ही दीक्षा देकर साधु बना लेते थे। साधु बालक की शिक्षा संघ में ही प्रारम्भ होती थी। वहाँ वह विद्वान् भी बनता था और संयम का आचरण भी करता था। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मेरुनन्दन उपाध्याय ने कम उम्र में ही. अपने गरु जिनोदय सरि से दीक्षा ली थी। जिनोदय सूरि भी केवल ८ वर्ष की उम्र में,जबकि वे समरा कहलाते थे, श्री जिनकुशल सूरि के पास दीक्षित हुए थे। सोमसुन्दर सूरि ने ७ वर्ष की ही वय में जयानन्द सूरि के पास दीक्षा धारण की थी। अपने-अपने गुरुनों के संघ में इन नव दीक्षित बाल साधुनों का अध्ययन चला । यह परम्परा ब्राह्मण आश्रमों की भांति थी, किन्तु अन्तर इतना ही था कि पाश्रम का विद्यार्थी २५ वर्ष के उपरान्त गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता था, जबकि जैन दीक्षित बालक के लिए यह अवसर सदा-सर्वदा के लिए बन्द हो चुका रहता था।