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तीन काल की वस्तुओं को नित्य जानता है । वह सदैव शांत स्वभाव रहता है ।" अपभ्रंश - साहित्य में परमात्मा के जिस पर्यायवाची का सबसे अधिक प्रयोग किया गया, वह है- निरञ्जन । योगीन्दु ने निरञ्जन की परिभाषा लिखी है, जिसका विवेचन पिछले पृष्ठों पर हो चुका है। योगीन्दु ने योगसार में भी परमात्मा के निष्कल, शुद्ध, जिन, विष्णु, बुद्ध, शिव श्रादि श्रनेक नाम दिये हैं। तात्पर्य वहां भी यही है कि परमात्मा को किसी नाम से पुकारो; किन्तु वह है निरञ्जन रूप ही । महात्मा श्रानन्द तिलक ने उसे हरि, हर, ब्रह्मा कहा, किन्तु साथ ही यह भी लिखा कि वह मन और बुद्धि से अलभ्य है; स्पर्श, रस, गन्ध से वाह्य है और शरीर से रहित है ।
जो परमात्मा निराकार है, अमूर्त है, अलक्ष्य है, उसकी भक्ति किस प्रकार सम्भव है ? मन को चारों ओर से हटाकर, देह - देवालय में बसने वाले ब्रह्म में तल्लीन करना, ब्रह्म से प्रेम करना और ब्रह्म का नाम लेना यदि भक्ति है तो वह भक्ति कबीर ने की और उनके भी पूर्व जैन भक्तों ने । उन्होंने किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपने मन को ब्रह्म में समर्पित नहीं किया— उनका समर्पण बिना शर्त था । उनका प्रेम भी अहेतुक था उसमें लौकिक अथवा पारलौकिक किसी प्रकार का स्वार्थ नही था । कबीर जैसा बिना शर्त प्रात्मसमर्पण - सगुरण परम्परा तो दूर, निर्गुण-धारा के भी अन्य कवियों में न बन पड़ा। उन्होंने कहा - " इस मन को 'विसमल' करके, संसार से हटा करके निराकार ब्रह्म के दर्शन करू ं । किन्तु यह मार्ग आसान नही है । इस पर चलने वाले को सिर देना
१. जो रिलय माउ रंग परिहरइ जो परभाउ ए लेइ । जाइ सय विरिच्चु पर सो सिउ सतु हवेइ ||
-- परमात्मप्रकाश, १1१८, पृ० २७ ।
२. रिणम्मलु रिणक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु । सो परमप्पा जिरण मणिउ एहउ जागि मितु ||
-- योगसार, ६ वाँ दोहा, पृ० ३७३ ।
३. हरिहर संभुवि सिव ही मरण बुद्धि लक्खिउरण जाइ । मध्य सरीर है सो वसइ श्ररगंदा लीजइ गुरुहि पसाइ ॥ फरस रस गंघ बाहिरउ रूव विहरणउ सोइ । जीव सरीरहँ बिणु करि धरणंदा सहगुरु जारणइ सोइ ॥
- प्रामेर-शास्त्र भण्डार की 'प्रागंदा' की हस्तलिखित प्रति, पद्य सं०१८, १६ ।
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