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है, जब वह परम आत्मा हो।' परम प्रात्मा वह है, जो न गौर हो, न कृष्ण हो, न सूक्ष्म हो, न स्यूल हो, न पण्डित हो, न मूर्ख हो, न ईश्वर हो, न निःस्व हो; न तरुण हो, न वृद्ध हो । २ इन सबसे परे हो, ऊपर हो, मूर्तिविहीन हो, अमन हो, अनिन्द्रिय हो, परमानन्द-स्वभाव हो, नित्य हो, निरञ्जन हो, जो कर्मों से छुटकारा पाकर ज्ञानमय बन गया हो, जो चिन्मात्र हो, त्रिभुवन जिसकी वन्दना करता हो। उसे सिद्ध भी कहते हैं । सिद्ध वह है, जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली है । सिद्धि का अर्थ है-निर्वाण । निर्वाण कर्मों से मुक्त विशुद्ध आत्मा कहलाती है । ऐसी आत्मा में सम्पूर्ण लोकालोक को देखता हुअा सिद्ध ठहरता है । सिद्ध और ब्रह्म के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। परमात्मा को शिव भी कहते हैं । शिव वह है, जो न जीर्ण होता है, न मरता है और न उत्पन्न होता है, जो सबसे परे है, अनन्त ज्ञानमय है, त्रिभुवन का स्वामी है, निधान्त है। तीन लोक तथा
१. जो परमप्पउ परमपउ हरि हरु बंभु वि बुद्ध । परम पयासु भणति मुणि सो जिरणदेउ विसुद्ध ।।
--परमात्मप्रकाश, २।२००, पृ० ३३७ । २. अप्पा गोरउ किण्हु गवि अप्पा रत्त ण होइ ।
अप्पा सुहुमु वि थूलु ण वि णारिणउ जारणे जोइ ।। अप्पा पंडिउ मुक्नु रणवि वि ईसरु णवि णीसु तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि काम विसेसु ।।
-परमात्मप्रकाश, १८६, ६१, पृ० ६०, ६४ । ३. अमणु अणिदिउ णाणमउ मुत्ति विरहिउ चिमित्त ।
मप्पा इंदिय विसउ गवि लक्खणु एहु णिरत्त ।। मुत्ति विहूणउ णाणमउ परमाणंद सहाउ । रिणयमि जोइय अप्पु मुरिण णिच्चु णिरजणु भाउ ।
-परमात्मप्रकाश, १।३१, २।१८, पृ० ३७, १४७ । ४. जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि शिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बभु परु देहहँ म करि भेउ ।।
-परमात्मप्रकाश, १।२६, पृ० ३३ । ५. जरइ ण मरइ ण सभवइ जो परि कोवि अणंतु । तिहुवरणसामिउ गाणमउ सो सिवदेउ णिभंतु ।।
-पाहुड़दोहा, ५४ वा दोहा, पृ० १६ ।
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