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"पणमवि सासरणदेवी अनइ वाएसरी। लिभद्र गुरण गहण, सुरिण सुरिणव रहज्जु केसरी ।।"
-स्थूलभद्ररास "जं फलु होइ गया गिरणारे, जं फलु दोन्हइ सोना भारे । जं फलु लक्वि नवकारिहि. गुरिणहिं तं फल सुभद्रा चरितिहिं सुरिणहि ।।'
-~-सुभद्रासती चतुष्पदिका शाहरयण, खरतरगच्छीय जिनपतिसूरि के शिष्य थे। उन्होंने वि० सं० १२७८ में 'जनपतिसूरि धवलगीत'' का निर्माण किया था। यह कृति गुरु-भक्ति का दृष्टान्त है । इसमें बीस पद्य हैं । रचना सरस है । पहला पद्य देखिए,
"वीर जिणेसर नमइ सुरेसर तसपट्ट पणमिय पय कमले ।
युगवर जिनपति सूरि गुग्ग गाइ सा भत्ति भर हरसि हिम निरमले ।।"
विजयसेनमूरि, नागेन्द्रगच्छीय हरिभद्रसूरि के शिप्य और मन्त्रिप्रवर वस्तुपाल के धर्माचार्य थे। उन्होंने वि० सं० १२८८ के लगभग 'रेवन्तगिरि रासो'२ की रचना की थी। इसमें ७२ पद्य है। इसमें गिरिनार के जन मन्दिरों का वर्णन है । इसकी भाषा प्राचीन गुजराती की अपेक्षा हिन्दी के अधिक निकट है । प्रारम्भ के दो पद्य इम भॉति है,
“परमेसर तित्थेसरह पय पकज पणमेवि, भरिणसु रासु रेवत गिरे, अविक देवी सुमरेवी। गामागर--पुर--वा--गहरण सरि-सरवरि-सुपएसु,
देवभूमि दिसि पच्छिमह मणहरु सोरठ देसु ।।" विक्रम सवत् को १४ वी शताब्दी में अनेक जैन कवि हुए। उनकी भाषा हिन्दी थी। उनकी कविताओं का मूलस्वर भक्तिपूर्ण था। खरतरगच्छीय जिनपतिसूरि के शिष्य जिनेश्वरमूरि ने वि० म० १३३१ के लगभग अनेक भक्तिपूर्ण स्तुतियों की रचना की, जिनमें से एक का नाम है 'बाबरो'। उसमें तीस पद्य है । आदि का एक पद्य देखिए,
१. 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित हो चुका है। २. 'प्राचीन गुर्जरकाव्य संग्रह' मे प्रकाशित हुआ है। ३. श्री अगरचन्द नाहटा के निजी सग्रह मे मौजूद है ।