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जाने से ही राधा कृष्ठा बन गई थी, फिर उसके विरह ने दुतरफा मार की हो, इसकी उसने चिन्ता भी न की ।" बनारसीदास ने आराध्य की महिमा के अचूक प्रभाव को जाना था, इसी कारण उनका उपर्युक्त वाक्य समूचे 'बनारसी विलास' में एक 'जय गीत' की भाँति जड़ा है ।
शिव महिमा को सतत बनाये रखना आसान नहीं है । यह संसार मधुमक्खियों के छत्ते की भाँति है, जो इसको भोगने की चाह करता है, मधुमक्खियाँ उड़कर उससे चिपट जाती हैं और वह एक प्रसह्य वेदना से कराह उठता है । शिव महिमा एक प्रोर पड़ी रह जाती है। हाँ, शक्ति सम्पन्न व्यक्ति, जिसके लिए एक जैन पारिभाषिक शब्द है - सम्यक्त्वी, इस उपाधि - मधुमक्खियों के आक्रमण को समाधिष्ठ की भाँति झेल लेता है । सहज का कवच पहने और मन में उमंग भरे वह इस विपत्ति के मध्य भी सुख की राह बनाता निकल जाता है और उसकी दशा किंचिन्मात्र भी उद्व ेगजनक नहीं होती। कहने का तात्पर्य यह है कि जीव के श्रात्मन् में उत्पन्न हुई शिव-सत्ता तभी बनी रह सकती है, जब जीव ने सम्यक्त्व रूपी शक्ति उपात्त करली हो । मेरी दृष्टि में सम्यक्त्व एक पवित्र झुकाव है - जिनेन्द्र की ओर यात्म ब्रह्म की ओर। यह एक ऐसा झुकाव है, जो एक बार जिधर झुक गया फिर उधर से मुड़ता नही । इस झुकाव को तानने के लिए अनेक विकृत उपाय कारगर हो सकते हैं, और कुछ समय के लिए ऐसा प्रतीत हो सकता है कि वह झुकाव अब हट गया, किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं । दुनियाबी कार्यों में सलग्न रहते हुए भी वह जीव उनसे नितान्त असंपृक्त रहता है । उसकी लगन आत्म- ब्रह्म की प्रोर होती है। जैसे कुछ ग्राम - बधुएँ कुए से जल भर कर घर को चल, सिर पर तीन-तीन भरे घट घरे हैं, श्रापस में हँस- खेल प्रौर इठला रही हैं, किन्तु उनका ध्यान सतत घड़ों में लगा रहता है। जैसे गौ वन में घास चरने जाती है, नदी में पानी पीती है, इधर-उधर घूमती-फिरती है; किन्तु उसका मन अपने
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" राधासयँ जब पुनतहि माधब माधब सयं जब राधा । दारुन प्रेम तर्बाह नहि टूटत बाढ़त बिरहक बाधा ।। दुहुँ दिसि दारु- दहन जैसे दगघई आकुल कीट परान । ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कवि विद्यापति मान ||"
- 'विद्यापति का प्रमर काव्य', गुणानन्द जुयाल सम्पादित, कानपुर प्रकाशन, ७० व पद, अन्तिम पंक्तियाँ, पृ० ४५ ।
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