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यह एक स्पष्ट ढलाव था, जो बोलियों के सम्मिश्रण से, प्रान्तीय भाषाओं का जन्मदाता बना। राजस्थानी, गुजराती, बंगला, हिन्दी भादि भाषाओं का इसी भांति जन्म हुआ। इनके साथ-साथ अपभ्रंश में भी रचनाएँ होती रहीं, किन्तु उनको बहुत अधिक नहीं कह सकते । यह कथन प्रामक है कि अपभ्रश जैनों की धार्मिक भाषा हो गई थो,' इसी कारण वे माधुनिक आर्यभाषामों के जन्म के बाद भी उसमें लिखते रहे। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि आर्यभाषाओं का प्रारम्भिक साहित्य अधिकाधिक रूप में जन कवियों और प्राचार्यों के द्वारा रचा गया । चाहे हिन्दी हो, गुजराती या राजस्थानी, उसका प्राचीन साहित्य जैन साहित्य है। यह एक ऐसा तथ्य है, जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। यद्यपि अपभ्रंश साहित्य भी रचा गया, किन्तु अपेक्षाकृत कम । इसका एक कारण यह भी था कि प्राचीन हिन्दी और अपभ्रश में कोई विशेष भेद नहीं था । एक ही कवि की, यदि दो कृतियों में अपभ्रंश का अधिक पुट होता था, तो चार में तत्कालीन बोली का अधिक सम्मिश्रण हो जाता था और वह हिन्दी या अन्य प्रांतीय भाषा का रूप ले लेती थी। कवि विद्यापति की 'कीतिलता' को अपभ्रंश में गिना जा सकता है तो पदावली को हिन्दी में।
अपभ्रंश लोकभाषा थी। उसमें भागे चल कर पर्याप्त साहित्य रचना हुई। 'कुवलयमाला कहा' के रचयिता उद्योतनसूरि ने उसकी प्रशंसा में लिखा, "ता कि अवहंस होहइ ? हूँ तं पिरणो जेण सक्कम-पाय उभय सुद्धासुद्ध पयसमतरंग रंगंतवाग्गिरं णव पाउस जलयपवाह पूर पव्वालिय गिरिणइ सरिसंसमं विसमं पणयकुवियपियपण इणी समुल्लावसरिसं मणोहरं ।।" इसका अर्थ है, "अपभ्रंश क्या होती है ? जिसमें दोनों-संस्कृत और प्राकृत के शुद्धाशुद्ध रूप पदों का मिश्रित रूप पाया जाता है, जो नववर्षाकालीन मेघप्रवाह के पूर द्वारा प्लावित, गिरिनदी के वेग समान, सम और विषम होता हुआ भी, प्रणयकोप से युक्त कामिनी के वार्तालाप की तरह मनोहर है।" स्वयम्भू ने भी 'पउम चरिउ' में लिखा है, "सक्कय-पायय-पुलिणां लंकिय देसी भासा उभय तडुज्जल । कवि दुक्करघरण-सद्द-सिलायल ।।"3 अर्थात् अपभ्रंश एक नदी के समान है, जिसके संस्कृत पौर प्राकृत दो तट हैं, वह दोनों का स्पर्श करती हुई घनपद-संघटना की चट्टानों
१. प्रद्युम्न चरित्र, प्राक्कथन, डॉ० माताप्रसाद गुप्त लिखित, पृ. ४ । २. देखिए 'कुवलयमाला काहा'। ३. देखिए स्वयम्भू का 'पउमचरिउ' ।
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