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हो,' किन्तु वह केवल विविध अपभ्रंश भाषाओं के बोलने में ही निपुण है । पुष्पदन्त अपभ्रंश को ही देशभाषा कहते थे ।
पुष्पदन्त के चालीस वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्द का 'कथाकोष' देशभाषा में लिखा गया है । इस ग्रन्थ में ५३ सन्धियां हैं । प्रत्येक सन्धि में एक कथा कही गयी है | कथा भक्ति से सम्बन्धित हैं । ग्रन्थ की प्रशस्ति से स्पष्ट है कि श्रीचन्द के गुरु वीरचन्द थे, जो कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में हुए हैं। एक उदाहरण इस प्रकार हैं,
"लहेवि सिद्धि च समाहिकारणं
समत्थ संसार डुहोह वारणं । पहुं जए जं सरसं निरंतरं ।। सुह सयात फलजं श्रणुत्तरं तेरणा माउ वद्धिउ पयाउ । सम्मत्त गारण तव चरण थारण || "
धनपाल धक्कड ( १० वी शती ईसवी) की 'भविसयत्त कहा' २ में यत्रतत्र अनेक स्थानो पर देशभाषा का प्रयोग हुआ है । डा० विण्टरनित्स और प्रो० जैकोबी प्रभृति विद्वानों ने इस काव्यकथा के रचना - कौशल की प्रशंसा की है । कथा का मूलस्वर व्रतरूप होते हुए भी जिनेन्द्र की भक्ति से सम्बन्धित है ।
यद्यपि श्राचार्य हेमचन्द्र ( सन् १०८८-१९७९ ) ने देशी नाममाला ( कोश) का ही निर्माण किया था, किन्तु जहां तक भक्ति का सम्बन्ध है, उनका कोई स्तोत्र या काव्य देशभाषा में लिखा हुआ उपलब्ध नहीं है । विनयचन्द सूरि ( १३ वी शती ईसवी) ने 'नेमिनाथ चउपई' का निर्माण किया था । यह देश
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१. गायकुमारचरिउ, डा० हीरालाल जैन सम्पादित, कारजा, १९३३ ई० पहली सन्धि, पृ० ३ ।
२. इसका प्रकाशन सन् १९१८ मे प्रो० जंकोबी के सम्पादन में म्यूनिक से हुआ था । बाद में डा० पी. डी. गुणे ने इसका सम्पादन किया और सन् १९२३ में G.O.S.XX. में इसे प्रकाशित किया। दोनों की भूमिकाएं विद्वत्तापूर्ण हैं ।
३. 'देशी नाममाला' जर्मन विद्वान् पिशेल द्वारा सम्पादित होकर B. S. S. XVII में
दो बार प्रकाशित हो चुकी है ।
४. 'प्राचीन गुर्जरकाव्य संग्रह' में इसका प्रकाशन सन् १९२० में हुआ है ।
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