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सिंह ने लिखा है - " तू तभी तक लोभ से मोहित हुआ विषयों में सुख मानता है, जब तक कि गुरु के प्रसाद से अविचल बोध नहीं पा लेता ।"" उन्होंने यह भी कहा कि लोग तभी तक धूर्तता करते हैं जब तक गुरु के प्रसाद से देह के देव को नहीं जान लेते । मुनि महचन्द का कथन है-- "यह जीव गुरु के प्रसाद से परमपति ब्रह्म को अवश्य ही उपलब्ध कर लेता है ।" महात्मा आनन्दतिलक ने असीम श्रद्धा के साथ लिखा कि यदि शिष्य निर्मल भाव से सुनता है तो गुरु के उपदेश से उसमें असीम ज्योति उल्लसित हुए बिना नहीं रहती । यह सच है कि शिष्य का भाव निर्मल होना चाहिए, अन्यथा गुरु का उपदेश निरर्थक ही होग। । कबीर के अनुसार ' बपुरा सतगुरु' क्या कर सकता है, यदि शिष्य में ही चूक हो उसे चाहे जैसे समझाश्रो, सब व्यर्थ जायगा । ठीक वैसे ही जैसे वंशी में फूक ठहरती नहीं, बाहर निकल जाती है । पाँडे रूपचन्द ने लिखा है कि अमृतमय उपदेश भी शिष्य को रुच नही सकता, यदि उसकी ज्ञानी श्रात्मा मिथ्यात्व से आवृत है । बनारसीदास का कथन है -- सहजमोह जब उपशमै रुचै सुगुरु उपदेश, तब विभाव भवतिथि घट, जगै ज्ञानगुण लेश ।
भारतीय धरती सद्गुरुत्रों की महिमा से सदैव धन्य होती रही । उसका प्राचीन साहित्य, पुरातत्व और इतिहास साक्षी है । किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि शनैः शनैः वह महिमा निःशेषप्रायः हो गई, कुगुरु बढ़ते गये और उनका अपयश भी । किन्तु उस समय के संत दोनों के अन्तर को स्पष्ट घोषित करते रहे, जिससे जनसाधारण को उनकी पहचान बनी रहती थी ।
१. लोहि मोहिउ ताम तुहुं विसयह सुक्ख मुहि । गुरुह पासा जाम गवि अविचल बोहि लहेहि ॥
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२. ताम कुतित्थइ परिभमइ, घुत्तिम ताम करति । गुरुह पसाए जाम गवि देहह देउ मुति ॥
-- पाहुडदोहा, ८१वा दोहा, पृ० २४ ।
३. छु तर परियारिगजइ, बाहिरि तुट्टइ नेहु । गुरुह पसाइ परम पऊ, लब्भइ निस्सदेह ||
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-वही, ८० वां दोहा, पृष्ठ २४ ।
-महीचन्द पाहुड़दोहा, हस्तलिखित प्रति, ७१ वां दोहा
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