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विषय में मौन, सबके लिए प्रिय और हितकारी वचन और शुद्धात्मतत्व में मन लगाता रहूँ, ऐसी प्रार्थना है ।
पाबाल्याज्जिनदेवदेव भवतः श्रीपादयोः सेवया, सेवासक्त विनेय-कल्पलतया कालोऽद्य यावद्गतः । त्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना प्राणप्रयागक्षणे,
त्वन्नाम प्रतिबद्धवर्णपठने कण्टोऽस्त्वकुण्ठो मम ॥६॥ हे भगवन् जिनदेव ! मेरा बचपन से लेकर आज तक का समय आपके चरणों की सेवा और विनय करते-करते ही व्यतीत हुआ है। इसके उपलक्ष में आपसे मैं वही वर चाहता हूँ कि आज इस समय, जबकि हमारे प्राणों के प्रयाण की बेला मा उपस्थित हुई है, आपके नाम से जटित स्तुति के उच्चारण में मेरा कण्ठ अकुण्ठित न हो।
तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वय लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावन्निर्वाण सम्प्राप्तिः ।।७।।
हे जिनेन्द्र ! जब तक मैं निर्वाण प्राप्त करू, तब तक आपके चरण-युगल मेरे हृदय में और मेरा हृदय आपके दोनों चरणों में लीन बना रहे ।
अनन्तानन्त-संसार-संततिच्छेदकारणम् । जिनराज-पदाम्भोज-स्मरणं शरणं मम ॥१४॥ अन्यथाशरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥१५।।
भगवान् जिनेन्द्र के चरणकमलों का वह स्मरण, जो अनन्तानन्त संसारपरम्पराओं को काटने में समर्थ है, मुझ दुःखी को शरण देने वाला है। मुझे आपके सिवा और कोई शरण देने वाला नही है, इसलिए हे भगवान् ! कारुण्य भाव से मेरी रक्षा करो।
नहि त्राता नहि त्राता नहि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ।।१६।। जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्तिदिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ।।१७।।
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