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वहां मानों समस्त जगत् ही संचार करता है । उनके परे कोई नहीं जा सकता ।" sarvari योगीन्दु का भी कहना है- "जिसके मन में निर्मल आत्मा नहीं बसती, उसका शास्त्र-पुराण और तपश्चरण से भी क्या होगा ? "२ प्रर्थात् निष्कल ब्रह्म के बसने से मन भी शुद्ध हो जायगा, उसकी गन्दगी रहेगी नहीं । विषयकषायों से संयुक्त मन जब निरञ्जन को पा लेता है, तब वह मोक्ष का हकदार बन जाता है। इसके अतिरिक्त तन्त्र और मन्त्र उसे मोक्ष नहीं दिला सकते । ३ महचन्द्र ने भी दोहा पाहुड़ में लिखा है- "निष्कल परम जिन को पा लेने से जीव सब कर्मों से मुक्त हो जाता है, श्रावागमन से छूट जाता है और अनंत सुख प्राप्त कर लेता है ।"
कबीर आदि संत कवियों ने 'साहिब' को घट के भीतर देखने के लिए कहा। उन्होंने स्पष्ट ही लिखा कि देवालय, मस्जिद, मूर्ति और चित्र भादि में 'वह' नहीं रहता । वहां उसका ढूंढा जाना व्यर्थ होगा । इसी भांति उन्होंने तीर्थयात्रा को भी निःसार माना । तीर्थों में भगवान नहीं रहता । 'भूम विषोंसरण कौ 'ग' कबीरदास ने लिखा है- "यह दुनिया मन्दिरों के आगे सिर झुकाने को जाती है, परन्तु हरि तो हृदय के भीतर रहते हैं, तू उसी में लौ लगा । ४" इसी भांति
१. केवलु मल परिवज्जियउ जहि सो ठाइ श्ररणाइ । तस उरि सब जगु संचरइ परइ ग कोइ वि जाइ ||
२ अप्पा यि मरिण निम्सलउ यिमें वसई एग जासु । सत्य पुराणइ तव चरणु मुक्खु वि करहि कि तासु ॥
--परमात्मप्रकाश, ११६८, पृ० १०२ ।
३. जेरण रिणरंजरिए मणु धरिउ विसय कसायहि जंतु । मोहं कारण एत्त प्रष्णु रण ततु रण मंतु ॥
-वही, दोहा - सं० ८६ ।
५. कबीर दुनियां देहुरे, सीस नवांवरण जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसे, तू ताही सौ ल्यो लाइ ||
-वही, १।१२३, पृ० १२५ ।
४. भार्या रिक्कुलु परम जिस्णु कम्मट्ठ हविरिण मुक्क । श्रावण गवरण विवर्जयऊ लहु श्रणंतु चउवकु ॥
- महचन्द : पाहुड़दोहा, भामेर-शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित प्रति, ६१ वाँ दोहा ।
— कबीर - प्रन्थावली, भ्रमविधोरण को प्रांग, ११ वाँ दोहा ।
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