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रात्मा में शुद्ध होने की ताकत होती है, किन्तु वह अभी पूर्ण शुद्ध है नहीं । परमात्मा आत्मा का पूर्ण शुद्ध रूप है । ' रहस्यवाद में आत्मा के दो ही रूप काम करते हैं - एक तो वह, जो अभी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सका है और दूसरा वह, जो परमात्मा कहलाता है। पहले में बहिरात्मा श्रौर अन्तरात्मा शामिल हैं और दूसरे में केवल परमात्मा । पहला अनुभूति कर्त्ता है और दूसरा धनुभूति
तत्व ।
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चाहे श्रात्मा ही ब्रह्म बनती हो अथवा वह ब्रह्म में मिलती हो, समरसता र तज्जन्य अनुभूति का श्रानन्द जैनकाव्यों में उपलब्ध होता है । कबीर ने लिखा है- पाणी ही तें हिम भया, हिम है गया बिलाइ । जो कुछ था सोई भया, अब कछू का न जाइ ।। ठीक ऐसा ही जैन कवि बनारसीदास का कथन हैपिय मोरे घट मैं पिय माहिं, जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहि । द्विविधा के मिटने की बात भगवतीदास भैया ने भी कही - जब तें अपनो जिउ प्राप लख्यो, तब तें जु मिटी दुविधा मन की । ४ हिन्दी कवियों की यह समरसता अपभ्रंश के दूहा-काव्य में ज्यों की त्यों उपलब्ध होती है । श्राचार्य योगीन्दु ने 'परमात्मप्रकाश' में लिखा है - मरणु मिलियउ परमेसरहे परमेसरु वि मरणस्स, हि वि समरसि हूवाँह पुज्ज asia कस्स । अर्थात् मन परमेश्वर में और परमेश्वर मन में मिलकर समरस हो गये, तो फिर मैं अपनी पूजा किसे चढ़ाऊँ ? ५ एक-दो शब्दों के हेर-फेर से मुनि रामसिंह ने भी लिखा - मरणु मिलियउ परमेसरहो परमेसरु जि मरणस्स, विणि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज चडावउ कस्स । दोनो की भाषा में यत्किञ्चित् श्रन्तर के अतिरिक्त कोई भेद नहीं है । मुनि श्रानन्द तिलक ने भी समरस के रंग की बात लिखी है। उनका कथन हैसमरस भावे रंगिया अप्पा देखइ सोई, अप्पर जारणइ परहाई श्रारगंद करई रिगरालंब होई ।
१. परमात्मप्रकाश, १।११।१५, पृ० २० - २४ ।
२. कबीर ग्रन्थावली, परचा को अग, १७ वा दोहा ।
३. बनारसीदास : अध्यात्मगीत, १६ वा पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १६१ ।
४. भगवतीदास 'भैया', शत- अष्टोत्तरी, ३५ वां कवित्त, ब्रह्मविलाम, जैन ग्रन्थरत्नाकर
कार्यालय, बम्बई, सन् १९२६ ई०, पृ० १६ ।
५. परमात्मप्रकाश, १।१२३, पृ० १२५ ।
६. पाहुडदोहा, ४६ वां दोहा, पृ० १६ ।
७. देखिए आमेर - शास्त्र भंडार, जयपुर की 'गंदा' की हस्तलिखित प्रति, ४० वां पद्य ।
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