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सालम्ब में मन को टिकने के लिए सहारा मिलता है, जबकि निरवलम्ब में उसे अनाधार में ही लटकना होता है । चंचल मन पहले तो किसी सहारे से ही टिकना सीखेगा, तब कहीं निराधार में भी ठहर सकने योग्य हो सकेगा । श्री योगीन्दु के मतानुसार चिन्ता का समूचा त्याग मोक्ष को देने वाला है, उसकी प्रथम अवस्था विकल्प सहित होती है । उसमें विषय- कषायादि अशुभ ध्यान के निवारण के लिए और मोक्ष मार्ग में परिणाम दृढ़ करने के लिए ज्ञानी जन जो भावना भाते हैं, वह इस प्रकार है - "चतुर्गति के दुःखों का क्षय हो, अष्टकर्मों का क्षय हो, ज्ञान का लाभ हो, पंचम गति में गमन हो, समाधि में मरण हो और जिनराज के गुणों की सम्पत्ति मुझको प्राप्त हो ।" यह भावना चौथे, पांचवें और छठें गुणस्थान में ही जाती है, आगे नहीं ।" सालम्ब समाधि में मन को टिकाने के लिए तीन रूपों की कल्पना की गई है - पिण्डस्थ, पदस्थ श्रौर रूपस्थ । शरीर युक्त श्रात्मा पिण्डस्थ, पंच परमेष्ठी और प्रोंकारादि मंत्र पदस्थ तथा अर्हन्त रूपस्थ कहे जाते हैं । २ प्राचार्य देवसेन ने स्पष्ट कहा है कि सर्वसाधारण के लिए निरवलम्ब ध्यान सम्भव नहीं, श्रतः उसे सालम्ब ध्यान करना चाहिए। उ
सालम्ब समाधि का प्रारम्भिक रूप सामायिक है । सामायिक का अर्थ रिहंतादि का नाम लेना और किसी मन्त्र का जाप जपना मात्र ही नहीं है, अपितु वह एक ध्यान है, जिसमें यह सोचना होता है कि यह संसार चतुर्गतियों में भ्रमण करने वाला है, प्रशरण, अशुभ, प्रनित्य और दुःख - रूप है । मुझे इससे मुक्त होना चाहिये । ४ सामायिक का लक्षण बताते हुए एक प्राचार्य ने कहा है :
समता सर्वभूतेषु सयम : शुभभावना प्रार्त्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ।।
१. प्राचार्य योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, प० जगदीशचन्द्र-कृत हिन्दी अनुवाद, पृ० ३२७-२८ । २. श्राचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा ४५६, ४६४, ४७२-४७५ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००६ ।
३. प्राचार्य देवसेन, भावसंग्रह, गाथा ३८२, ३८८ मरिणकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९२१ ई० ।
४. प्राचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र, ५।१४, पृ० १४० वीर-सेवा मन्दिर, दिल्ली, १६५५ ई० ।
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