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अनुभव रस का देने वाला इष्ट है, वह परम प्रकृष्ट और सब कष्टों से रहित है। उसकी अनुभूति ही चित्त की भ्रांति को हर सकती है। वही सूर्य की किरण की भांति प्रज्ञान के तमस को नष्ट करती है। वह माया रूपी यामिनी को काटकर दिन के प्रकाश को जन्म देती है । वह मोहासुर के लिए काल रूपा है
"या अनुभूति रावरी हरै चित्त की भ्रांति । सा शुद्धा तुष भानु की किरण जु परम प्रशान्ति ।। किरण ज परम प्रशान्ति तिमिर यवन जु की नास । माया यामिनी मेटि बोध दिवस जु विभासै ।। मोहासुर क्षयकार ज्ञानमूला विभूती। भाष दौलति ताहि रावरी या अनुभूती ॥"
जैन कवियों के प्रबन्ध और खण्ड काव्यों में 'शान्त-रस' प्रमुख है । अन्य रसों का भी यथा प्रसंग सुन्दर परिपाक हुआ है, किन्तु वे सब इसके सहायक भर हैं । जिस प्रकार अवान्तर कथायें मुख्य कथा को परिपुष्ट करती हैं, उसी प्रकार अन्य रस प्रमुख रस को और अधिक प्रगाढ़ करते हैं। एक प्रबन्ध काव्य में मुख्य रस की जितनी महत्ता होती है, सहायक रसों की उससे कम नहीं। पं० रामचन्द्र शुक्ल प्रवान्तर कथानों को रस की पिचकारियाँ कहते थे, सहायक रस भी वैसे ही होते हैं । वे अवान्तर कथाओं और प्रासंगिक घटनाओं के संघटन में सन्निहित होते हैं और वहाँ ही काम करते हैं। एक महानद के जल प्रवाह में सहायक नदियों के जल का महत्वपूर्ण योगदान होता है, वैसे ही मुख्य रस की गति भी अन्य रसों से परिपुष्ट होती हुई ही वेगवती बनती है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मुख्य रस केवल परिणति होता है, प्रारम्भ नही । यद्यपि प्रत्येक रस अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र और बलवान होता है, किन्तु उसके अन्तरंग में मुख्य रस का स्वर सदैव हल्के सितार की भांति प्रतिध्वनित होता ही रहता है । एक प्रबन्ध काव्य में घटनाएँ, कथाएँ तथा अन्य प्रसंग होते हैं, जिनमें मानव-जीवन के विविध पहलुनों की अभिव्यक्ति रहती है किन्तु उनके जीवन में मुख्य रस एक प्राण तत्व की भाँति भिदा रहता है और उनमें मानव की मूल मनोवृत्तियों को खुला खेलने का पूरा प्रबसर मिलता है । मुख्य रस और मुख्य
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१. अध्यात्मबारहखड़ी, पं० दौलतराम, दि० जैन पंचायती मन्दिर, बड़ौत की हस्तलिखित
प्रति, ११८ वा पद्य।
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