Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 240
________________ 10000011 000000 3 की अनुभूति जितना काम करती है, भव-भव को तपस्या और साधना नहीं । धानतराय ने लिखा है, "लाख कोटि भव तपस्या करतें. जितो कर्म तेरो जर रे । स्वास उस्वास माहिं सो नासै जब अनुभव चित घर रे ।"" बनारसीदास ने अनुभूति को अनुभव कहा है। उसका प्रानन्द कामधेनु, चित्राबेल के समान 'है । उसका स्वाद पंचामृत भोजन जैसा है । कवि रूपचन्द ने 'अध्यात्मसवैया' मैं स्वीकार किया है, "ग्रात्म ब्रह्म की अनुभूति से यह चेतन दिव्य प्रकाश से युक्त हो जाता है । उसमें अनन्तज्ञान प्रकट होता है और यह अपने श्राप में ही लीन होकर परमानन्द का अनुभव करता है ।" आत्मा के अनूपरस का संवेदन करने वाले अनाकुलता प्राप्त करते हैं । प्राकुलता बेचैनी है। जिससे बेचैनी दूर हो जाय, वह रस प्रमुपम ही कहा जायेगा। यह रस अनुभूति से प्राप्त होता है, तो अनुभूति करने वाला जीव शाश्वत सुख को विलसने में समर्थ हो जाता है | पं० दीपचन्द शाह ने ज्ञानदर्पण में लिखा है, "अनुभी विलास में अनंत सुख पाइयतु । भव की विकारता की भई है उछेदना ।।" उन्होंने एक दूसरे स्थान पर लिखा, "अनुभौ उल्हास में अनंतरस पायौ महा ।।" यह अखण्ड रस और कुछ नहीं साक्षात् ब्रह्म ही है। अनुभूति की तीव्रता इस जीव को ब्रह्म ही बना देती है । श्रात्मा परमात्मा हो जाती है। अनुभव से संसार का आवागमन मिटता है । यदि अनुभव न जगा तो, "जगत की जेती विद्या भासी कर रेखावत, कोटिक जुगांतर जो महा तप कीने हैं । अनुभी अखण्डरस उरमें न प्रायो जो तो सिव पद पाव नाहि पर रस भीने हैं ।। " " किन्तु यह महत्वशाली तत्व भगवान की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है। महात्मा आनन्दघन का कथन है, "मोको दे निज अनुभव स्वामी - निज अनुभूति निवास स्वधामी ।" इस अनुभूति से जो संयुक्त है वही अनन्त गुणातम धाम है। अनुभव रूप होने के कारण ही भगवान नाम भी दुख हरण करने वाला और प्रतिभव को दूर करने वाला है । महात्मा का कथन है कि प्रभु के समान और कोई नटवा नही है । उसमें से हेयोपादेय प्रकट होते हैं । १ द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, पद ७३ वो, पृ० ३१ । नाटक समयसार, बनारसीदास, बम्बई, १६ व पद्य, पृ० १७-१८ । ३. देखिए अध्यात्मसवैया, रूपचन्द, मन्दिर ब्रधीचन्द जी, जयपुर की हस्तलिखित प्रति । ' ज्ञानदर्पण, पं० दीपचन्द शाह, तीनों उद्धरण क्रमश: - पद्य मं० १८१, १७५, १२६, सकलित प्रध्यात्म पंचसंग्रह, पं० नाथूलाल जैन सम्पादित, इन्दौर, वि० सं० २००५, पृष्ठ संख्या -- ६१, ५६, ४४ क्रमशः । ५. प्रानन्दषनपदसंग्रह, महात्मा प्रानन्दघन, बम्बई, २१ वो पद । 55555555X 755555555

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