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वाला ब्रह्म है । कथन है
इस जीव के निष्कर्म वेतन को ब्रह्म कहते हैं। उनका
" राम कहो, रहमान कहो कोऊ, कान कहो महादेव री । पारसनाथ कहो, कोई ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजन भेद कहावत नाना, एक मृतिका रूप री 1 तैसे खण्ड कल्पना रोपित, श्राप प्रखण्ड सरूप री । निज पद रमै राम सो कहिए, रहिम करे रहिमान री । कर्षे करम कान सो कहिए, महादेव निर्वाण री । परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इह विधि साधो भानन्दघन, चेतनमय निष्कर्म री ।।" "
इस प्रकार की उदार परम्पराओं ने जैन काव्यों में शान्ता भक्ति के रूप को शालीनता के साथ पुष्ट किया था। इसी सन्दर्भ में माया की बात भी श्रा जाती है । माया, मोह और शंतान पर्यायवाची हैं । संत, वैष्णव और जैन तीनों ही कवियों ने शान्ति के लिए उसके निरसन को अनिवार्य माना । वह अज्ञान की प्रतीक है । उसके कारण ही यह जीव संसार के आवागमन में फंसा रहता है । यदि वह हट जाय तो समस्त विश्व ब्रह्म रूप प्रतिभासित हो उठे
।
वह दो प्रकार 'हट सकती है-ज्ञान से और भक्ति से । सांख्यकारिका में एक प्रत्यधिक मनोरंजक दृष्टान्त आया है । प्रकृति सुन्दरी है और पुरुष को लुभाने में निपुण है, किन्तु जब पुरुष उसे ठीक से पहचान जाता है, तो लज्जा से अपना बदन ढक दूर हो जाती है । ठीक से पहचानने का अर्थ है कि जब पुरुष को ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह प्रकृति के मूल रूप को समझ जाता है तो वह प्रकृति-माया पलायन कर जाती है । जैन सिद्धांत में ज्ञान ही भ्रात्मा है । यहाँ श्रात्मा का अर्थ है -- विशुद्ध प्रात्मा प्रर्थात् जब जीवात्मा में विशुद्धता प्राती है तो मोह स्वत: ही
१. महात्मा श्रानन्दघन, प्रानन्दघनपदसंग्रह, प्रध्यात्मज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई, ६७ व पद ।
२. प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चिदस्तीति मे मतिर्भवति ।
या दृष्टाऽस्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥
सांख्यकारिका, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, प्रथम संस्करण, वि० सं० १६६७, ६१ वां श्लोक |
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