Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 235
________________ Repher HOME aamanand . . व्यर्थ प्रयास कहा ।' तुलसी का कथन है कि अन्य देव माया से विवश हैं, उनकी शरण में जाना व्यर्थ है। तुलसी की दृष्टि में राम ही शोल, शक्ति और सौन्दर्य के चरम अधिष्ठाता हैं । कृष्ण भी वैसे नहीं हो सकते । सूर का समूचा 'भ्रमर मीत' निर्गुण ब्रह्म के खण्डन में ही खपा-सा प्रतीत होता है । जैन कवियों ने भी सिवा जिनेन्द्र के अन्य किसी को आराध्य नहीं माना। मैंने अपने ग्रन्थ 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य और कवि' में भक्तिधारा की इस प्रवृत्ति का समर्थन किया है। मेरा तर्क है कि भक्त कवियों ने यह काम प्राराध्य में एकनिष्ठ भाव जगाने के लिए ही किया होगा। किन्तु साथ ही मैंने यह भी स्वीकार किया है कि इस 'एकनिष्ठता' की प्रोट में वैष्णव और जैन दोनों ही कड़वाहट नहीं रोक सके। दोनों ने शालीनता का उल्लंघन किया। फिर भी अपेक्षाकृत जैनकवि अधिक उदार रहे । उनमें अनेक ने तो पूर्ण उदारता बरती। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि प्रभास पट्टन के सोमनाथ के मन्दिर के उद्धार में सम्राट कुमारपाल को प्राचार्य हेमचन्द्र का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त था। हेमचन्द्र ने बिना तरतमांश के उस देव को नमस्कार किया, जिसके रागादिक दोष क्षय को प्राप्त हो गये हों, फिर वह देव ब्रह्मा, विष्णु, हर या जिन कोई भी हो। उनका एक श्लोक है-- "भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया। बीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोस्तु ते ॥"3 इसी भॉति एक अन्य जैन भक्त कवि देवी पद्मावती की आराधना करने को उद्यत हुआ तो अन्य देवियों को निन्दा न कर सका। उसने कहा कि देवी पद्मावती ही सुगतागम में तारा, शैवागम में गौरी, कौलिक शासन में बजा और १. जांचक पं जॉचक कह जाँच जो जाँचे तो रसना हारी ।। सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ३४ वा पद, पृ० ३० । २ देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया-विवस विचारे । तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुनपी हारे ।। विनयपत्रिका, पूर्वार्ष, १०१ वां पद, पृ० १६२ । ३. प्राचार्य हेमचन्द्र का श्लोक, देखिए मेरा पन्थ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि', पहला अध्याय, पृ० १२ । HEREG ១១១១៣១ RA ១១១៣១២១ ARTA KINARENDOMETAICH3rdPM4MARA

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