Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 229
________________ ARRAINH Madh मानता । राग चाहे सम्पत्ति से सम्बन्धित हो या पुत्र-पौत्रादिक से, सदैव दाहकारी ही होता है, मखमल और कमख्वाब के गद्दों पर पड़े लोगों को भी बेचैनी से तड़फते देखा गया है । दूसरी ओर गरीबी तो नागिन-जैसी जहरीली होती ही है । भूधरदास की यह पंक्ति “कहूँ न सुख संसार में सब जग देख्यो छान" देशकाल से परे एक चिरंतन तय्य है। इहलौकिक प्राकुलता से संतप्त यह जीव भगवान की शरण में पहुंचता है और जो शांति मिलती है, वह मानों सुधाकर का बरसना ही है, चिंतामणिरत्न और नवनिधि का प्राप्त करना ही है। उसे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे आगे कल्पतरु लगा हुआ है । उसकी अभिलाषायें पूर्ण हो जाती हैं । अभिलाषाओं के पूर्ण होने का अर्थ है कि सांसारिक रोग और संताप सदा-सदा के लिए उपशम हो जाते हैं । फिर वह जिस सुख का अनुभव करता है वह कभी क्षीण नहीं होता और उससे अनुस्यूत शांति भी कभी घटती बढ़ती नहीं । कवि कुमुदचन्द्र को यह विनती शांतरस की प्रतीक है प्रभु पायं लागौं करूं सेव थारी तुम सुन लो अरज श्री जिनराज हमारी। घणौं कस्ट करि देव जिनराज पाम्यो । है सबै संसारनों दुख वाम्यौ ।। जब श्री जिनराजनी रूप दरस्यौ । जब लोचना सुष सुधाधार वरस्यौ । लह्या रतनचिता नवनिधि पाई । मानौं पागणे कलपतर आजि आयो । मनवांछित दान जिनराज पायौ । गयो रोग संताप मोहि सरब त्यागी॥' संसार की परिवर्तनशील दशा के प्रकन में जैन कवि अनुपम हैं। परिवर्तनशीलता का अर्थ है-क्षणिकता, विनश्वरता । संसार का यह स्वभाव है । अत: यदि यहाँ संयोग मिलने पर कोई प्रानन्द-मग्न और वियोग होने पर दु:ख-संतप्त होता है तो वह अज्ञानी है । यहाँ तो जन्ममरण, संपत्ति-विपत्ति, सुख-दुःख चिरसहचर हैं । संसार में यह जीव नाना प्रकार से विविध अवस्थाओं को भोगता १. देखिए हस्तलिखित गुटका मं० १३३, लेखनकाल-वि० सं० १७७६, मंदिर ठोलियान, जयपुर। $45 55 554 4.5 5 50 $4551 55 55 55599

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