Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 226
________________ E 'खिन विलोकि मन्ध : ससे की मंधेरी, . . . . . . 'करै ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग मैं ॥"'. . . एक वृद्ध पुरुष की दृष्टि घट गयी है, तन की छबि पलट चुकी है, गति मंद हो गयी है और कमर झुक गयी है । उसकी घर वाली भी रूठ चुकी है, और वह अत्यधिक रंक होकर पलंग से लग गया है। उसकी नार (गर्दन) काँप रही है और मुह से लार चू रही है। उसके सब अंग-उपांग पुराने हो गये हैं, किन्तु हृदय में तृष्णा ने और भी नवीन रूप धारण किया है। जब मनुष्य की मौत माती है, तो उसने संसार में रच-पच के जो कुछ किया है, सब कुछ यहां ही पड़ा रह जाता है। भूधरदास जी ने कहा है, "तीव्रगामी तुरंग, सुन्दर रंगों से रंगे हुए रथ, ऊँचे-ऊँचे मत्त मतंग, दास और खबास, गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ और. करोड़ों की सम्पत्ति से भरे हुए कोश, इन सब को यह नर अंत में छोड़ कर चला जाता है । प्रासाद खड़े-के-खड़े ही रह जाते हैं, काम यहाँ ही पड़े रहते हैं, धनसम्पत्ति भी यहाँ ही डली रहती है और घर भी यहाँ ही धरे रह जाते ।" वह "तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतग उतंग खरे ही। दास खबास प्रवास अटा, धन जोर करोरन कोश भरे ही ।। एसे बढ़े तो कहा भयौ हे नर, छोरि चले उठि अन्त छरे ही। धाम खरे रहे काम परे रहे दाम डरे रहे ठाम धरे ही ।।"3 १. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, ३५ वा पद, पृ० ११ । २. दृष्टि घटी, पलटी तन की छबि, बक मई गति लक नई है । रूस रही परनी घरनी प्रति, रक भयो परियंक लई है। कांपत नार वहै मुख लार, महामति संगति छोरि गई है। मंग-उपंग पुराने परे तिसना उर और नवीन मई है ।। जैनशतक, कलकत्ता, ३८ वा सवैय्या, १० १२ । ३. वही, ३१ वा पद, पृष्ठ ११, 55555555555555

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