Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 214
________________ JLA अर्थात् विरक्ति मादि के द्वारा मन का निर्विकार होना शम है।' यद्यपि प्राचार्य मम्मट ने 'निर्वैर' को 'शान्तरस का स्थायीभाव माना है, किन्तु उन्होंने "तत्वज्ञान जन्यनिर्वेदस्यैव शमरूपत्वात्" लिखकर निर्वेद को शम रूप ही स्वीकार किया है। प्राचार्य विश्वनाथ ने शम' और 'निर्वेद' में भिन्नता मानी है और उन्होंने पहले की स्थायी भाव में तथा दूसरे की संचारी भाव में गणना की है।' जैनाचार्यों ने वैराग्योत्पत्ति के दो कारण माने हैं-प्रथम-तत्वज्ञान, द्वितीय इष्टवियोग और अनिष्ट-संयोग। इसमें पहले में उत्पन्न हुमा वैराग्य स्थायीभाव है और दूसरा सचारी । इस भांति उनका अभिमत भी आचार्य मम्मट से मिलताजुलता है । इसके साथ-साथ उन्होंने मम्मट तथा विश्वनाथ की भांति ही प्रनित्य जगत को पालम्बन, जैन मन्दिर, जैन तीर्थ क्षेत्र, जैन मूर्ति और जैन साधु को उद्दीपन, वृत्यादिकों को संचारी तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह के अभाव अर्थात् सर्व समत्व को अनुभाव माना है । ___ शान्ति का अर्थ है निराकुलता । पाकुलता राग से उत्पन्न होती है। रत होना राग है । इसी को प्रासक्ति कहते है। प्रासक्ति ही अशान्ति का मूल कारण है । सांसारिक द्रव्यों का अर्जन और उपभोग बुरा नहीं है; किन्तु उसमें आसक्त होना ही दुःखदायी है । प्राचार्य कुन्द-कुन्द ने कहा है कि जैसे परति भाव से पी गई मदिरा नशा उत्पन्न नहीं करती, वैसे ही अनासक्त भाव से द्रव्यों का उपभोग कर्मों का बन्ध नहीं करता ।३ कर्मों का बन्ध अशान्ति ही है। प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि यह बन्ध जिनेन्द्र के चरणों की स्तुति से स्वतः उपशम हो जाता है जैसे कि मन्त्रों के उच्चारण से सर्प का दुर्जय विष शान्त हो जाताहै। ४ जैसे १. भगवज्जितसेनाचार्य, प्रलंकारचिन्तामणि । २. प्राचार्य मम्मट, काव्यप्रकाश, चौखम्बा सस्कृत माला, संख्या ५६, १९२७ ई०, तुर्थ उल्लास, पृ० १६४ ।। ३. जहमज्ज पिवमाणो अरदिमावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवमोगे मरदो गाणी वि ण वज्झदि तहेव ।। प्राचार्यकुन्दकुन्द, समयसार, श्री पाटणी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारौठ (मारवाड़), १९५३ ई०, १६६वी गाथा, पृ० २६६ । क्र द्वाशीविषदष्ट दुर्जयविषज्वालावली विक्रमो, विद्याभेषज मत्रतोयहवनर्याति प्रशान्तिं यथा । तद्वत्त चरणाम्बुजयुग स्तोत्रोन्मुखानां नृणाम्, विघ्नाः कायविनाशकाश्च सहसा शाम्यन्त्यहो विस्मयः ।। प्राचार्य पूज्यपाद, संस्कृतशान्तिभक्ति, 'दशक्तिः ', शोलापुर, १९२१ ई०, २रा श्लोक, पृ. ३३५॥ ४.

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