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दास ने भी अपने 'रस मीमांसा' नाम के निबन्ध में अनेकानेक संस्कृत उदाहरणों के साथ, 'शान्त' को 'रसराज' सिद्ध किया है ।
जहाँ तक भक्ति का सम्बन्ध है, जैन और अजैन सभी ने 'शान्त' को ही प्रधानता दी । यदि शाण्डिल्य के मतानुसार 'परानुरक्तिरीश्वरे' ही भक्ति है, तो यह भी ठीक है कि ईश्वर में 'परानुरक्ति:' तभी हो सकती है, जब प्रपर की अनुरक्ति समाप्त हो । अर्थात् जीव की मनः प्रवृत्ति संसार के अन्य पदार्थों से अनुराग - हीन होकर, ईश्वर में अनुराग करने लगे, तभी वह भक्ति है, अन्यथा नहीं । और संसार को प्रसार, प्रनित्य तथा दुःखमय मान कर मन का श्रात्मा अथवा परमात्मा में केन्द्रित हो जाना ही शान्ति है । इस भाँति ईश्वर में 'परानुरक्ति : ' का अर्थ भी 'शान्ति' ही हुआ । स्वामी सनातनदेवजी ने अपने 'भाव भक्ति की भूमिकाएँ' नामक निबन्ध में लिखा है, "भगवदनुराग बढ़ने से अन्य वस्तु और व्यक्तियों के प्रति मन में वैराग्य हो जाना भी स्वाभाविक ही है । भक्ति - शास्त्र में भगवत्प्रेम की इस प्रारम्भिक अवस्था का नाम ही 'शान्तभाव' है" । ' नारद ने भी अपने 'भक्तिसूत्र' में 'सात्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृत स्वरूपा च ' को भक्ति माना है। इसमें पड़े हुए 'परमप्र' म' से यह ही ध्वनि निकलती है कि संसार से वैराग्योन्मुख होकर एकमात्र ईश्वर से प्र ेम किया जाये । शान्ति में भी वैराग्य की ही प्रधानता है । 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में 'अन्याभिलाषिताशून्यं कृष्णानुशीलनं उत्तमा भक्ति' : उपर्युक्त कथन का हो समर्थन करतो है । यह कहना उपयुक्त नहीं हैं कि अनुरक्ति में सदैव जलन होती है, चाहे वह ईश्वर के प्रति हो अथवा संसार के, क्योंकि दोनों में महदन्तर है । सांसारिक अनुरक्ति दुःख की प्रतीक है और ईश्वरानुरक्ति दिव्य सुख को जन्म देती है । पहली में जलन है, तो दूसरी में शीतलता, पहली में पुनः पुनः भ्रमरण की बात है, तो दूसरी में मुक्त हो जाने की भूमिका ।
जैनाचार्य शान्ति के परम समर्थक थे। उन्होंने एक मत से, राग-द्वेषों से विमुख होकर वीतरागी पथ पर बढ़ने को ही शान्ति कहा है। उसे प्राप्त करने के दो उपाय हैं - तत्व- चिन्तन और वीतरागियों की भक्ति । वीतराग में किया गया
१. कल्याण, भक्ति विशेषांक, वर्ष ३२, अंक १, पृ० ३६६ ।
२. 'नारद प्रोक्त' भक्ति सूत्रं', वाराणसी, प्रथम सूत्र ।
३. भक्ति रसामृतसिन्धु, गोस्वामी दामोदर शास्त्री सम्पादित, प्रच्युतग्रन्थमाला कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८८, प्रथम संस्करण ।
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