Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 220
________________ MISHROMITAIMERUTANTRA HI Twaina %ENTERSNE maa है। राजशेखर सूरि के 'नेमिनाथफागु' में राजुल का अनुपम सौन्दर्य मंकित है, किन्तु उसके चारों पोर एक ऐसे पवित्र वातावरण की सीमा लिखी हुई है, जिससे विलासिता को सहलन प्राप्त नहीं हो पाती। उसके सौन्दर्य में जलन नहीं, शीतलता है । वह सुन्दरी है किन्तु पावनता की मूर्ति है । उसको देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है । मैंने अपने ग्रन्थ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' में लिखा है, "जबकि भगवान् के मंगलाचरण भी वासना के कैमरे से खींचे जा रहे थे, नेमीश्वर भौर राजुल से संबंधित मांगलिक पद दिव्यानुभूतियों के प्रतीक भर ही रहे। उन्होंने अपनी पावनता का परित्याग कभी नहीं किया।"२ जिन पपसूरि के 'थूलिभद्दफागु'3 में कोशा के मादक सौन्दर्य और कामुक विलास चेष्टाओं का चित्र खींचा गया है । युवा मुनि स्थूलभद्र के संयम को डिगाने के लिए सुन्दरी कोशा ने अपने विलास-भवन में अधिकाधिक प्रयास किया, कितु कृतकृत्य न हुई । कवि को कोशा की मादकता निरस्त करना अभीष्ट था, अत: उसके रति-रूप और कामुक भावों का अंकन ठीक ही हुमा। तप की दृढ़ता तभी है, जब वह बड़े-से-बड़े सौन्दर्य के प्रागे भी दृढ़ बना रहे । कोशा जगन्माता नहीं, वेश्या थी। वेश्या भी ऐसी-वैसी नहीं, पाटलिपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या । यदि पधसूरि उसके सौंदर्य को उन्मुक्त भाव से मूर्तिमन्त न करते तो अस्वाभाविकता रह जाती। उससे एक मुनि का संयम सुदृढ़ प्रमाणित हुआ । इसमें कहीं अश्लीलता नहीं है । सच तो यह है कि दाम्पत्य रति को रूपक ही रहना चाहिए था, कितु जब उसमें रूपकत्त्व तो रहा नहीं, रति ही प्रमुख हो गई, तो फिर प्रशालीनता का उभरना भी ठीक ही था। जैन कवि और काव्य इससे बचे रहे। इसी कारण उनकी शांतिपरकता भी बची रही। हिन्दी के जैनभक्त कवियों ने संस्कृत-प्राकृत की शांतिधारा का अनुगमन किया। बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' में 'नवमों सांत रसनि को नायक' स्पष्ट १. पादारस्थितया मुहुः स्तनमरेणानीतया नम्रता शम्भोः सस्पृहलोचनत्रयपथं यान्त्या सदाराधने । ह्रीमत्या शिरसीहितः सपुलकस्वेदोद्गमोत्कम्पया विश्लिष्यन्कुसुमाञ्जलिगिरिजया क्षिप्तोऽन्तरे पातुवः।। श्री हर्ष, रत्नावली, प्रथम मंगलाचरण । २. देखिए 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि', प्रथम अध्याय, पृ० ४ । ३. यह काव्य प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला, ३, वि० सं० २०११, पृ० ३० पर प्रकाशित हो चुका है। 15555555BE AN DAMANATLA.POMA

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