Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 205
________________ PATEKAR t HAPPIRA H ERE THA N ESHRESMARANASiraveena SECTION Ammonalod Edit पुरमई चोंगे. वो बमुख पूर्वक कप न कर सकेंगे ..पोल के सपने पर को रामुल की चिन्ता और भी बढ़ गई है। उसे विश्वास है कि पति कर पाय बिता रजाई के नहीं करेगा। फ्तों की धुवनी से तो काम चलेगा नहीं। उस पर भी काम को फोनें इसी ऋतु में निकलती हैं, कोमलगात के नेमीश्वर उससे लड़न सकेंगे । वैशाख की गर्मी को देखकर राजुल और भी अधिक व्याकुल है. क्योंकि इस गर्मी में नेमीश्वर को प्यास लगेगी तो, तो शीतल जल कहाँ मिलेगा, और तीन धूप से तपते पत्थरों से उनका शरीर दग जायेगा। कवि लक्ष्मीवल्लभ का 'नेमिराजुल बारहमासा' भी एक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल १४ पद्य हैं । प्रकृति के रमणीय सन्निधान में विरहिणी के व्याकुल भावों का सम्मिश्रण हुआ है, "श्रावण का माह है, चारों ओर से विकट घटायें उमड़ रही हैं । यामिनी में कुम्भस्थल जसे स्तनों को धारण करने वाली भामिनियों को पिय का संग भा रहा है । स्वाति नक्षत्र की बूदों से चातक की पीड़ा दूर हो गई है । शुष्क पृथ्वी की देह हरियाली को पाकर दिप उठी है। किन्तु राजुल का न तो पिय पाया और न पतियाँ ।"" ठीक इसी भांति एक बार जायसी की नागमती भी विलाप करते हुए कह उठी थी, "चातक के मुख में स्वाति नक्षत्र की बूदे पड़ गई और समुद्र की सबसी भी मोतियों से भर गई। १. पिया सावन में व्रत लीजे नहीं, घनघोर घटा जुर मावंगी। चहुँ मोर त मोर जु शोर करें, वन कोकिल कुहक सुनावैगी ।। पिय रैन मधेरी में सूझे नहीं, कछु दामिनी दमक डरावेगी। पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं, छिन में तप-तेज छुड़ावंगी।। कवि विनोदीलाल, बारहमासा नेमि-राजुल का, बारहमासा-संग्रह, कलकत्ता, ४२. बाँ पद्य, पृ. २४ । २. देखिये वही, १४ वा पञ्च, पृ० २७ । । ३. वहीं, २२ वा पद्य, पृ० २६ । ४. उमड़ी विकट घनघोर घटा, चहुं मोरनि मोरनि सोर मचायो।। भम दिवि दामिनि यामिनि कुभय मामिनि कुपिय को संग भायो । ' चिउ चातक पीड़ ही पीड़ लई, भई राजहरी मुंह देह दिपायो। पतियां पै न पाई री प्रीतम की, पली श्रावण पायो 4 नेम न पायो। कवि लक्ष्मीवल्लम, नेमी-राजुल बारहमासा, पहला पद्य, 'हिन्दी जन भक्ति काव्य 'पौर कवि', पृ० ५६४। जध卐卐कभKI

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