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के सत्यागली में माखान्य रूपी जल और सूचि रूपी केबार बोलकर नीर को अवकमी पिचकारी में घर कर अपने प्रियतम के ऊपर छोड़ा। भांति उसने अत्यधिक प्रानन्द का अनुभव किया। . प्रेम में अकव्यता का होना मावश्यक है । प्रेमी को प्रिय के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह सच्चा प्रेम है । मां-बाप ने राजुल से दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया, क्योंकि राजुल की नेमीश्वर के साथ भांवरें नहीं पड़ने पाई थीं। किन्तु प्रेम भांवरों की अपेक्षा नहीं करता । राजुल को तो सिवा नेमीश्कर के अन्य का नाम भी रुचिकारी नहीं था। इसी कारण उसने माँ-बाप को फटकारते हुए कहा, "हे वात ! तुम्हारी जीभ खूब चली है, जो अपनी लड़की के लिए भी गलियाँ निकालते हो। तुम्हें हर बात सम्हाल कर कहना चाहिए। सब स्त्रियों को एक सी न समझो । मेरे लिए तो इस संसार में केवल नेमि प्रभु ही एकमात्र
- महात्मा मानन्दघन अनन्य प्रेम को जिस भाँति अध्यात्म पक्ष में घटा सके, वैसा हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका । कबीर में दाम्पत्य भाव है और आध्यात्मिकता भी, किन्तु वैसा आकर्षण नहीं, जैसा कि आनन्दधन में हैं। जायसी के प्रबन्ध-काव्य में अलौकिक की ओर इशारा भले ही हो, किन्तु लौकिक कथानक के कारण उसमें वह एकतानता नहीं निभ सकी है जैसी कि आनन्दधन के मुक्तक पदों में पाई जाती है। सुजान वाले घनानन्द के बहुत से पद भगवद्भक्ति में वैसे नहीं खप सके, जैसे कि सुजान के पक्ष में घटे हैं । महात्मा मानन्दघन जैनों के एक पहुंचे हुए साधु थे। उनके पदों में हृदय की तल्लीनता है । उन्होंने
१. सरधा गागर रुचि रूपी, केसर घोरि तुरन्त ।
पानन्द नीर उमंग पिचकारी. छोड़ी नीकी मंत । होरी खेलोंगी, भाये चिंदानन्द कन्त ।।
भूधरदास, 'होरी खेलोंगी' पद, अध्यात्म पदावली, भारतीय भान पीठ,
काशी, पृ० ७५ २. काहे न बात सम्भाल कही, तुम जाजत हो यह बरस भली है।
गालियाँ काढ़त हो हमको सुनो तात माली तुम जीभ चली है। हम सब को तुम तुल्य गिनो, तुम जानत ना यह बात रली है। '' या भव में पति नेमि प्रभू, वह लाल विनोदी को नाथ बली है।
. नेमि व्याह, विनोदीलाल, हस्तलिखित प्रति, जन सियोत भवन, पारा।