Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 204
________________ T 'कहा' के दर्शन होते हैं, किन्तु उसमें नायिका के 'पेंडुलम होजाने की बात नहीं आ पाई है । यद्यपि राजुल की 'उर' भी ऐसा जल रहा है कि हाथ उसके समीप नहीं ले जाया जा सकता, किन्तु ऐसा नहीं कि उसकी गर्मी से जड़काले में लुपे चलने लगी हों । राजुल अपनी सखी से कहती है. "नेमिकुमार के बिन जिय रहता नही है । हे सखी! देख मेरा हृदय कैसा तप रहा है। तू अपने हाथ को निकट लाकर देखती क्यों नहीं । मेरी बिरह जन्म उष्णता कपूर और कमल के पत्तों से दूर नहीं होगी । उनको दूर हटादे। मुझे तो 'सियरा कलाघर' भी 'करूर' लगता है । प्रियतम प्रभु नेमिकुमार के बिना मेरा हियरा' शीतल नहीं हो सकता 1"" प्रिय के वियोग में राजुल भी पीली पड़ गई । किन्तु ऐसा नहीं चिदित हुआ कि उसके शरीर में एक तोला मांस भी न रहा हो । विरह से भरी नदी में उसका हृदय भी बहा है, किन्तु उसकी आंखों से खून के धांसू कभी नहीं ढुलके । हरी तो वह भी भर्त्ता से भेंट कर ही होगी किन्तु उसके हाड़ सूख कर सारंगी कभी नहीं बने । २ बारह मासा नेमीश्वर और राजुल को लेकर जैन हिन्दी साहित्य में बारहमासों की भी रचना हुई है । उन सब में कवि विनोदीलाल का 'बारहमासा' उत्तम है । प्रिया को प्रिय के सुख के निश्चय की प्राशंका सदैव रहती है, भले ही प्रिय सुख से रह रहा हो। तीर्थंकर नेमीश्वर वीतरागी होकर निराकुलता पूर्वक गिरिनार पर तप कर रहे हैं । किन्तु राजुल को शंका है, जब सावन में घनघोर घटायें जुड़ ग्रायेंगी चारों ओर से मोर शोर करेंगे, कोकिल कुहुक सुनावेगी, दामिनी दमकेगी और १. नेमि बिना न रहे मेरो जियरा । हेर री हेंली तपत उर कैसी. लावत क्यों निजं हाथ न नियरा ।। करि करि दूर कमल-दल, लगत करूर कलांवर सियरा ॥ 'मूघर के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल हीय न राजुल हियरा ॥ वही, २० व चंद, पृ० १२ । २ . देखिये वही, १४ वाँ' पद, पृ० ६ और मिलाइये जायसी के नागमती विस्तृ-वन से । 1555555555

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