Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 190
________________ सूरियों में विद्वत्ता की परम्परा चली श्रा रही थी। वे स्वयं तो प्राकृतसंस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् होते ही थे, अपने शिष्यों को भी वैसा ही बनाने का प्रयास करते थे । सोमसुन्दर का जन्म वि० सं० १४३० में हुआ था । उन्होंने १४३७ में साधु पद धारण किया और वि० सं० १४५० में वे एक ख्याति प्राप्त विद्वान् माने जाने लगे थे । वि० सं० १४५७ में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित होते ही उनका यश चतुर्दिक में व्याप्त हो उठा । अर्थात् उन्हें प्रकाण्ड विद्वान् बनने में २० वर्ष लगे । नन्दिरत्न गरिण आदि अनेक विद्वानों ने उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है । वे जो कुछ बने अपने गुरु और संघ में रहकर ही । 1 वह युग वाद-विवादों का था। राज दरबारों में उन्हीं का सन्मान होता था जो विजयी होते थे। सूरियों के शिष्यों की प्रतिष्ठा समूचे भारतवर्ष में थी । कहा जाता है कि उपाध्याय जयसागर के शिष्य सुर-गुरु को भी पराजित करने में समर्थ थे । यह उनको प्रखण्ड साधना के अनुकूल ही था। ये साधु-संघ में छोटेछोटे बालकों को अनवरत परिश्रम के साथ संयम और विद्या के क्षेत्र में अनुपम बना देते थे । आज समूचे विश्व की कोई शिक्षा संस्था ऐसा नहीं कर सकती । आज यदि कोई विद्वान् बन भी जाता है, तो या तो चरित्रहीन होता है या अहंकारी । आधुनिक चरित्र की परिभाषा केवल सभा-परिषदों की शिष्टता तक ही सीमित रह गई है। भारतीय शिक्षा संस्थानों में अनुशासनहीनता चरित्र की कृत्रिम परिभाषा स्वीकार कर लेने से हुई है । मध्यकाल के जैन साधु-संघों में अनुशासन की कोई समस्या नहीं थी । यद्यपि श्राश्रमों के रहने वाले शिष्य कभी-कभी विद्रोही भी हो जाते थे, जैसा कि 'भूलापारीय जातक' में लिखा है कि एक आश्रम के शिष्यों ने अध्यापकों की समानता का दावा करते हुए उनकी विनय करना त्याग दिया था । किन्तु जैन संघों के शिष्य विनय की मूर्ति ही होते थे । वहाँ एक ऐसा अनुशासन का वातावरण रहता था, जिसमें कोई शिष्य विरोधी विचार ला ही नहीं पाता था । कलियुग का प्रभाव विद्या केन्द्रों पर पड़ा था। गुरु के प्रति विद्यार्थी रोष दिखाते थे और अपने हठ पर ही चलते थे । हीरानन्द सूरि ने कलिकालरास का निर्मारण वि० सं० १४८६ में किया था । उसमें तत्कालीन विद्यार्थियों और विद्याकेन्द्रों की हीनदशा का वर्णन है। किन्तु उस समय भी जैन संघों के बाल साधु अत्यधिक विनय और श्रद्धा के साथ विद्या ग्रहरण में संलग्न थे । हीरानन्द सूरि जैसे चरित्र निष्ठ विद्वान् जिस संघ में बने थे, उसकी परम्परा पर कलियुग का प्रभाव नहीं था । हीरानन्द एक उत्कृष्ट कोटि के कवि भी थे। उन्होंने वस्तुपाल फफफफफफफ १४६ फफफफ$4

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