Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 197
________________ PER माता HALPre A warenainaminatantarvamanaram GANE मध्यकालीन जैन हिन्दी कवियों की प्रेम साधना भक्तिरस का स्थायी-भाव भगवद्विषयक अनुराग है । इसी को शाण्डिल्य ने 'परानुरक्तिःकहा है। परानुरक्तिः गम्भीर अनुराग को कहते हैं । गम्भीर अनुराग ही प्रेम कहलाता है। चैतन्य महाप्रभु ने रति अथवा अनुराग के गाढ़े हो जाने को ही प्रेम कहा है। भक्ति रसामृत सिन्धु' में लिखा है, "सम्यक मसृणित स्वान्तो ममत्वातिशयोक्तिः भावः स एव सान्द्रात्मा बुषः प्रेम निगद्यते ।" प्रेम दो प्रकार का होता है-लौकिक और अलौकिक । भगवद्विषयक अनुराग अलौकिक प्रेम के अन्तर्गत माता है । यद्यपि भगवान् का प्रौतार मान कर उसके प्रति लौकिक प्रेम का भी प्रारोपण किया जाता है, किन्तु उसके पीछे अलौकिकत्व सदैव छिपा रहता है । इस प्रेम में समूचा पात्मसमर्पण होता है और प्रेम के प्रत्यागमन की भावना नहीं रहती। अलौकिक प्रेम जन्य तल्लीनता ऐसी विलक्षरण होती है कि दूध भाव ही मृत हो जाता है । फिर प्रेम में प्रतीकार का भाव कहाँ रह सकता है। नारियां प्रेम की प्रतीक होती हैं। उनका हृदय एक ऐसा कोमल और सरस थाला है, जिसमें प्रेम भाव को लहलहाने में देर नहीं लगती । इसी कारण भक्त भी कांताभाव से भगवान् की पाराधना करने में अपना अहोभाग्य समझता १.शाण्डिल्य भक्ति सूत्र, ११२, पृ०१ २. चैतन्यचरितामृत, कल्याण, भक्ति ग्रंक, बर्ष ३२, अंक १, पृ० ३३३ ३. श्री रूपगोस्वामी, हरिभक्तिरसामृतसिन्धु, पोस्वामी दामोदर-सम्पादित, अच्युत ग्रन्थ माला कार्यालय, काशी, वि.सं. १९८८, प्रथम संस्करण, १।४।१ ARHWAR HREGDHOK MAHHHHHEART PULI Audw omlodebest

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