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रूप में उपलब्ध है । फिर भी दोनों में अन्तर था। एक की वैभव-याचना के मूल में वीतरागता का स्नेह सन्निहित था, दूसरे की विशुद्ध भौतिकता से सम्बन्धित थी । एक अपने प्राराध्य से सांसारिक वैभव मांगता, किन्तु उनसे विरक्त होने का भाव, साथ में स्वभावतः चिपका होता, तो दूसरे की वैभव-याचना जीवन-पर्यन्त उपभोग के लिए होती। वीतरागी परम्परा में जिन पुण्य प्रकृतियों से चक्रवर्ती की विभूति मिलती, उन्हीं से उसे त्यागने का भाव भी उपलब्ध होता । सम्राट भरत, जिन्होंने कैलाश के शिखर पर समूचे विश्व का जयघोष किया था, एक दिन वन की राह लेने को मचल उठे। अकस्मात् 'उपयोग' जागृत होता है. और चक्रवर्ती सम्राट को भी साम्राज्यों की लक्ष्मी प्रातः की वैश्या-इव फीकी और अनाकर्षक प्रतीत हो उठती है। उसे वैभव की चकाचौंध अटका नहीं पाती। वह सबके मध्य नग्न होकर तप साधने चल पड़ता है । खबास खड़े रह जाते हैं, धनधान्य पड़े-के-पड़े ही रहते हैं और पुत्र-पौत्रादिक अड़े ही रहते हैं, किन्तु वह चला जाता है, रुकता नहीं। अन्तः की अदम्य प्रेरणा उसे रुकने नहीं देती । ऐसी होती है जैन भक्त की वैभव-याचना । भौतिकता की पृष्ठभूमि में निलीन प्राध्यात्मिकता की यह गौरवपूर्ण सुषमा विश्व-साहित्य के किस पृष्ठ पर अंकित मिलेगो ? इससे जैन भक्ति-परम्परा का एक महत्वपूर्ण तथ्य भी सामने प्रा जात है कि राग ही विराग है, यदि उसके साथ 'विरक्ति' का भाव सन्निहित है । परिग्रह ही अपरिग्रह है, यदि उसके पीछे विरक्ति का प्रारकेस्ट्रा बजता ही रहता है। जीव ही ब्रह्म है, यदि उसका मूल स्वर विरक्ति के सांचे में ढला होता है । जैन भक्ति का यह एक विशिष्ट पहलू है, जो स्पष्ट होते हुए भी अभी तक अनभिव्यक्त की भाँति पड़ा रहा है।
बनारसीदास ने अपने आराध्य के नाम की महिमा सूर-तुलसी की भॉति ही समझी थी। उनको विश्वास था कि जिनेन्द्र के नामोच्चारण में अमित बल है । जिस भाँति पारस के स्पर्श से कुधातु स्वर्ण बन जाती है, ठीक वैसे ही जिनेन्द्र का नाम लेने से पापीजन भी पावन हो जाते हैं। विश्व में सुयश से भरा नाम दोनों का है-एक तो भगवान् का और दूसरे किसी बड़े आदमी का । भगवान् के नाम से भव-सिन्धु तैरा जा सकता है, क्योंकि वह स्वयं अनादि अनन्त है, उनके साथ मरने-जीने की व्याधि संलग्न नहीं है । किसी बड़े प्रादमी का सुयश विस्तृत अवश्य हुआ है, किन्तु वह अस्थिर है और असत्य । जो मृत्यु और जीवन के फेरों से उबर नहीं सका, वह क्या सत्य होगा और क्या स्थिर । भक्त को पूरा विश्वास है कि भगवान् के नाम की महिमा अगम और अपार है । एक वह
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