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ही समूचे त्रिभुवन का प्राधार बनने की सामर्थ्य रखता है।' वह नाम किसी सरोवर के कमलों का स्पर्शकर मंद सुगन्ध शीतल पवन की भांति ग्रीष्म की भयंकर जलन का निवारण करता है। विश्व के संघर्ष ही ग्रीष्म की तपन हैं । भगवान् के नाम से यह जीव उनमें विजय प्राप्त कर शांति और शीतलता का अनुभव कर पाता है। नाम-मात्र से संघर्षों की यह जीत कितनी शानदार भौर शालीन है। तुलसी की विनयपत्रिका पोर सूरदास का सूरसागर 'नाम-महिमा' के ही निदर्शन हैं । वहाँ शत-शत पद केवल नाम की महत्ता मुखर हो-होकर घोषित करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि बनारसीदास इन वैष्णव कवियों की नाममूला भक्ति से प्रभावित थे। उनके पीछे अपनी ही एक समृद्धतर परम्परा थी। प्राचार्य समन्तभद्र (दूसरी शती वि० सं०) ने लिखा कि तीर्थ कर अजितनाथ का नाम लेने से घट में विराजे 'पातमराम' अर्थात् 'ब्रह्म' के तुरन्त दर्शन हो जाते हैं । आचार्य 'मेरुतुग' (वि० सं० सातवीं शती) का विश्वास है कि भगवान् का नाम एक ऐसा मन्त्र है, जिसमें असीम बल होता है । उसके उच्चारण से 'पापादकण्ठमुरुशृखलवेष्टितांग:' अर्थात् पैर से कण्ठ तक शृखलाओं से जकड़े और 'गाढ़ बृहन्निगडकोटिनिधृष्टजंघाः' अर्थात् मोटी-मोटी लोहे की जंजीरों से घिस गई हैं जघायें जिनकी, ऐसे मनुष्य शीघ्र ही बंधनमुक्त होजाते हैं। प्राचार्य सिद्धसेन (वि०स० ५ वीं शती)ने भी भगवन् के नाम की अचिन्त्य महिमा
१. "अनादि अनंत भगवन्त को सुजस नाम,
भव-सिन्धु तारण-तरण तहकीक है। अवतरं मरं मी घरै जे फिर-फिर देह, तिनको मुजस नाम अथिर अलीक है ।"
___'नाम निर्णय विधान', तीसरा कवित, बनारसीविलास, पृष्ठ १२५ । २. तुम जस महिमा अगम अपार । नाम एक त्रिभुवन माघार ।। अवै पवन पदमसर होय । ग्रीषम तपन निवार सोय ॥
कल्याणमन्दिर स्तोत्र भाषा, ८ वा पद्य, बनारसीविलास, पृष्ठ १२५ । ३. देखिये स्वयम्भूस्तोत्र, दूसरा श्लोक, बीर-सेवा मन्दिर, दिल्ली . ४. मापादकण्ठमुरुश्रंखलवेष्टितागा, गाढबृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघा । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरंतः, सद्याः स्वयं विगतबन्धमयाः भवन्ति ।
भक्तामरस्तोत्र, मानतुंगाचार्य, ४६ वा श्लोक ।
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