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है जो सन्निकट भविष्य में मोक्ष प्राप्त करे । उसे मोक्षगामी भी कहते हैं । ऐसा जो होगा वह 'शिव रूप' को देखकर अवश्य ही नमेगा, नमे बिना रहेगा नहीं, झुकझुक जायेगा । इसका तात्पर्य यह भी हुआ कि 'शिव रूप' को देखकर 'सिवगामी' हो झुक सकता है, दूसरा नहीं । बनारसीदास का यह पद्य है
"जो अपनी दुति माप विराजत
है परधान पदारथ नामी। चेतन अक सदा निकलंक
महासुखसागर को बिसरामी।। जीव - अजीव जिते जग मै
तिनको गुन-ज्ञायक अन्तरजामी। सो सिव रूप बस सिव-थान
ताहि विलोकि नमै सिवगामी ॥१
यहा 'शिव-रूप' को देखकर 'सिवगामी' झकता है, यह तो ठीक है; किन्तु वह देखने में समर्थ कैसे हो पाता है, प्रश्न यह है । ऐसी सामर्थ्य के लिए किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता नही है । केवल शिव-महिमा हृदय में बसी हो। 'शिव रूप' के दर्शन हो ही जायेंगे। दर्शन हो नहीं वह स्वयं भी शिवरूप हो जायेगा। बनारसीदास ने लिखा है 'शिव-महिमा जाके घट बासी, सो शिवरूप हुआ अविनासी ।"२ पहले भक्त आराध्य की महिमा से आकर्षित भर होता है, फिर उसका पाकर्षण घनीभूत ब्रह्म में बदल जाता है और महिमा उसके चित्त में दृढ़ प्रासन जमा लेती है । तुलसी ने विनयपत्रिका के अनेक पदों में राम-महिमा के ही गीत गाये हैं। उनकी दृष्टि में राम से अधिक राम-महिमा है । उसके सहारे हो राम प्राप्त होते हैं, तो वह अधिक क्यों न होगी। गोपियों ने कृष्ण-महिमा को समझा था। उनके हृदय में कृष्ण क्षण भर को भी इधर-से-उधर नहीं गये, यदि जाते तो ऊधो क्षणमात्र के लिए ही सही, निर्गुण ब्रह्म को वसा अवश्य देते। यदि गोपियों ने कृष्ण-महिमा को न समझा होता तो उनका ऐसा विश्व-व्यापी विरह सही-सही न उतर पाता । मभी जानते हैं कि कृष्ण-महिमा के बद्धमूल हो
१ जीव द्वार । २, नाटक समयसार, पृ० ११ । २. “शिव स्वरूप भगवान् अवाची । शिव-महिमा अनुभव मति सांची ॥
शिव-महिमा जाके घट मासी। सो शिवरूप हुमा अविनासी ॥"
--शिव पच्चीसी, तीसरा पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १४६ ।
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