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उनका भगवान् ऐसा है, इसलिए जगत-शिरोमणि है, समूचा जगत उसकी 'जै' के गीत गाता है
"अविनासी अविकार परम रस धाम है
समाधान सरवंग सहज अभिराम है । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त है
जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवन्त है ।।" बनारसीदास की एक प्रसिद्ध कृति है 'शिव पच्चीसी' । इसमें पच्चीस पद्य है । उस समय पच्चीसी, छत्तीसी और बहत्तरी आदि रचे जाने की प्रथा थी। बनारसीदास की यह रचना भी उसी परम्परा में गिनी जायेगी। इसमें उन्होंने सांगरूपक प्रस्तुत किया है, अर्थात् सिद्ध को शिव बनाया है और शिव के समूचे गुण सिद्ध में घटित किये है । शिव को सिद्ध कहने की प्रथा प्राचीन है । संस्कृत के अनेक जैन कवियों ने सिद्ध को शिव सज्ञा से अभिहित किया है। योगीन्दु से भी पूर्व प्राचार्य मानतुग ने (तीसरी शती) 'भक्तामरस्तोत्र' में "त्वं शकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्' 3 और आचार्य अकलंक ने 'अकलंकस्तोत्र' में "सर्ववित्तनुभृतां क्षेमकरः शकरः” ४ लिखकर जिनेन्द्र को स्पष्ट रूप से ही शंकर कहा है । बनारसीदास के जिनेन्द्र की करुण-रस-वाणी ही सुर-सरिता, सुमति गौरी, त्रिगुणभेद नयन-विशेष, विमल भाव समकित-शशि लेखा, सुगुरुसीख शृगी, नयव्यवहार बाधम्बर, विवेक-बैल, शक्ति-विभूति अगच्छवि, तीन
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१. नाटक समयसार, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज. देहली, प्रारम्भिक स्तुतियाँ, चौथी
स्तुति, पृष्ठ २। २. शिव पच्चीसी, बनारसी विलास, जयपुर, पृष्ठ १४६ पर संकलित है । "बुद्धस्त्वमेव विबुधाचित बुद्धिबोधान
त्वं शकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर ! शिव मार्ग विधेविधानाद्
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥" ४. "दग्धं येन पुरत्रयं शरभुवा तीवाचिषा वह्निना।
__ यो वा नृत्यति मत्तवत्पितृवने यस्यात्मजोवाग्रहः ।। सोऽयं कि मम शंकरो भयतृषारोषात्ति मोहक्षयं ।
कृत्वा यः स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमंकरः शंकरः ॥२॥"
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