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प्रकाश का । इसका अर्थ हुआ कि ज्ञान ज्ञान से प्रकाशित होता है। तात्पर्य निकला कि ज्ञान से परम प्रानन्द मिलता है । तो वह चेतन ज्ञान मोर प्रानन्द दोनों रूप हैं । 'दोनों रूप' का अर्थ है--' प्रकाश रूप' है । चेतन प्रकाश है । बनारसीदास के पन्ना के पकाये जैसे कंचन विमल होत, तैसें शुद्ध चेतन प्रकाशरूप भयो है " " में भी चेतन के इसी 'प्रकाश रूप' की बात है । अतः उसकी अनुभूति में ज्ञान है और परम प्रानन्द भी । श्रानन्द और रस पर्यायवाची हैं । बनारसीदास का मत है, "चेतन को प्रनुभो प्रराधे जग तेई जीव, जिन्हnt प्रखण्ड रस चाखिबे की क्षुधा है।"" यहाँ प्रखण्ड-रस' में परमानन्द की ही बात है । 'परमात्मप्रकाश' के टीकाकार ब्रह्मदेव ने चिदानन्दैकरूप, परमात्मप्रकाश और सिद्धात्मा को एक ही माना। उनकी बन्दना करते हुए लिखा, "चिदानन्देक रूपाय जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः ।। " यह चेतन घट रूपी मन्दिर में रहता है । बनारसीदास ने उसकी वन्दना की है, "सो है घट मंदिर में चेतन प्रगट रूप ऐसो जिनराज ताहि वदत बनरसी । " उन्होंने चेतन के माहात्म्य की बात अनेक बार कही। कभी तो "चिदुरूप स्वयम्भू चिन्मूरति धरमवंत, प्रानवत, प्रानि जन्तुभूत भवभोगी हैं" ४ कहा और कभी "निराबाध चेतन अलख, जामै सहज सुकीव । अचल अनादि, अनन्त नित, प्रगट जगत में जीव ।। "५ लिखा । तुलसी ने भी विनय पत्रिका में 'चिदानन्द' के सुधारस का पान करने के लिए मन को प्रेरित किया है। उनकी दृष्टि में संसार रविकर जल के समान है, उसकी ओर दौड़ने से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता, अतः मन को 'चिदानन्द' की ओर मोड़ने से ही लाभ है। जैन कवि भैया भगवतीदास भी 'चिदानन्द' के ही श्राराधक थे। उन्होंने बार-बार कहा कि 'चिदानन्द' की भक्ति करने से ही ससार के माया जाल से मुक्ति मिल सकती है, अन्यथा नहीं ।
जैन ब्रह्म निरञ्जन भी है। 'भी' यह प्रमाणित करने को लिखा कि निरञ्जन शब्द केवल ग्रजैन पारिभाषिक शब्द नहीं है, वह जैन पदावली में समाहित होता है । प्राचार्य अकलक ने 'अकलंक -स्तोत्र' में लिखा है. "सोऽस्मा
१. जीव द्वार । ३४, नाटक समयसार, पृ० २० ।
२. अजीव द्वार । ११, नाटक समयसार, पृ० २३ ।
३. जीव द्वार । २६, वही, पृ० १६ ।
४. नाटक समयसार, प्रारम्भिक स्तुतियाँ, २३ वाँ पद्य, पृ० ८ । ५. अजीव द्वार । १०, नाटक समयसार, पृ० २३ ।
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