________________
00000
5000
1
निगम निरंजन निरंध है ।' कह कर सिद्ध का ही प्रतिपादन किया है । उनकी दृष्टि में यह निरंजन चिदाकार, निराकार, निरधार, निर्वाचक, निर्मम, निरजोग और चरित्रधाम है । यहाँ निर्मम का अर्थ कर नहीं है, अहिंसा के प्रतीक जिनेन्द्र में उसकी सम्भावना नहीं हो सकती । निर्मम का 'मम' ममता का द्योतक है और ममता मोह को कहते हैं, मर्थ हुमा कि निरंजन मोह-रहित है । जैन सिद्धान्त के पाठ कर्मों में 'मोहनीय' एक 'प्रबलतम कर्म माना जाता है । उसका घात करना कठिन है । साधक को समूची साधना खपानी होती है। मोह के क्षीण हुए बिना ज्ञान का प्रकाश प्रदीप्त नहीं हो सकता । तो निरंजन निर्मम है, इसका अर्थ इतना ही है कि वह ज्ञान के अनिर्वचनीय रस से संयुक्त है । बनारसीदास ने 'शिव पचीसी' में 'निर्गुण रूप निरंजन देवा' लिखकर 'निरंजन' को निर्गुण माना और साथ ही 'सगुरण स्वरूप करें विधि सेवा' के द्वारा उसे सगुरण भी कहा । निर्गुण ही मुख्य है, सगुण तो उसके भावलिंग की मूर्ति है, जो व्यापक दोष से दूषित तो रहेगी ही । सगुरग के महान् उपासक तुलसी भी 'ब्रह्म' का मूल रूप 'निर्गुण' ही स्वीकार करते हैं। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो उनकी 'विनय पत्रिका' का मूलस्वर निर्गुण-परक है । बनारसीदास ने निरंजन को 'परमगुरु', 'परमपुरुष' और 'भगवान्' भी कहा । भगवान् भय-भञ्जन होता है और उनका 'निरंजन' भी ऐसा ही है । 'परमसमाधिगत' उस निरंजन की बनारसी ने श्रद्धापूर्वक वन्दना की है ।" उनका मत है कि संतोष को साधे बिना निरञ्जन की आराधना नहीं हो सकती । संतोष को साधने का अर्थ है
104X
१. बंध द्वार ५४, नाटक समय सार, पृष्ठ ७८ ।
२. चरित्रधाम चित् चमत्कार । चरनातम रूपी चिदाकार | निर्वाचक निर्मम निराधार । निरजोग निरञ्जन निराकार ॥
----सहस्रनाम, २३ वाँ पद्य, बनारसीविलास, पृ० ५ ।
३. भाव लिग सो मूरति थापी । जो उपाधि सो सदा प्रव्यापी । निर्गुण रूप निरजन देवा । सगुण स्वरूप करें विधि सेवा ||
५. 'साषि सन्तोष देइ सुसीख न
- शिव पच्चीसी, ७ वॉ पद्य, बनारसीविलास, पृ० १५० ।
४. परमनिरञ्जन परमगुरु, परमपुरुष परधान । वन्द परम समाधिगत, मय-मजन भगवान् ||
कर्म छत्तीसी, पद्य १, बनारसीविलास, पृ० १३६ । अराषि निरंजन,
लेइ
अदम्ता
निर्जरा द्वार । १०, नाटक समयसार, पृ० ४८ ।
फफफफफफ १३५ 5