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नपातु निरञ्जनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः ।"१ प्राचार्य योगिन्दु ने 'परात्म प्रकाश' और 'योगसार' दोनों ही ग्रन्थों में 'निरञ्जन' का एकाधिक बार प्रयोग किया। उन्होंने निरंजन की परिभाषा लिखी, “जासुरण वण्णु रण गन्धु न रसु जासु ण सद्गुण फासु । जासु न जम्मंणु ण वि गाउ निरंजणु तासु ।"२ अर्थात् जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न रस, न शब्द, न स्पर्श, न जन्म और न मरण, वह निरञ्जन कहलाता है। इससे मिलती-जुलती बात मुनि रामसिंह ने 'पाहुड़दोहा' में कही है, वैण्णविहूणउ णाणमउ जो भावइ सन्भाउ। संत निरंजणु सो जि सिउ तहिं किज्जइ अणुराउ । इसका तात्पर्य है कि जो वर्ण-विहीन है, ज्ञानमय है, सद्भाव को भाता है, वह संत और निरंजन है, वही शिव कहलाता है, उसी में अनुराग करना चाहिए। यहाँ मुनि जी ने शिव और 'निरंजन' को एक ही माना है। मूल स्वरूप की दृष्टि से दोनों में कोई भेद है भी नही । जैसे 'शिव' का ध्यान लगाने से चित्त का मैल दूर हो जाता है, वैसे ही "चित्ति रिणरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण।", निरंजन शब्द का अर्थ ही 'मलरहित' है। 'कल्प सुबोधिका' में लिखा है, "रंजनं रागाद्युपरञ्जनं तेन शून्यत्वात् निरञ्जनं ।” स्थानांग सूत्र में भी "रंजनं रागाद्युपरञ्जन तस्मानिर्गतः” को निरंजन कहा है ।५ अञ्जन का अर्थ है मैल । राग भी मैल ही है, अत: उससे छुटकारा पाने वाला निरंजन है । मुनि कनकामर ने भी 'करण्डुचरिउ में जिन दो तीन स्थानों पर निरंजन' शब्द का प्रयोग किया है, वह भी इसी अर्थ में है। इस सबसे स्पष्ट है कि उस भगवान् को निरंजन कहो, सिद्ध, शिव या निर्गुण एक ही बात है । अपभ्रंश-साहित्य में जिस शब्द का सबसे अधिक प्रयोग हुआ, वह निरंजन है।
बनारसीदास इसी परम्परा से प्रभावित थे। उन्होंने भी निरंजन को सिद्ध के रूप में ही स्वीकार किया है । यह बात उनके द्वारा निरूपित सिद्ध के स्वरूप से प्रमाणित है । उन्होंने “अलख अमूरति अरूपी अविनासी अज, निराधार,
१. अकलंक स्तोत्र, १० वॉ श्लोक । २. परमात्मप्रकाश, १११६, पृ० २७ । ३. मुनि रामसिंह, पहुड़दोहा, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, कारजा (बरार), वि० सं०
१९६०, ३८ वॉ दोहा, पृ० १२ । ४. मम्भितरचिति वि मइलियइ बाहिरि काइ तवेरण । चित्ति रिणरंजणु कोवि धरि मुच्चाहि जेम मलेण ।।
-~-देखिये वही, ६१ वां दोहा, पृ० १८ । ५. अभिधान राजेन्द्र कोश, चतुर्थ भाग, पृ० २१०६ ।
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