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कहाँ मिलती है ? इसीलिये सुमति 'जिन महिमा' तभी कहलाई जब पहले जिनभक्ति बन सकी । जिन-भक्ति ही 'जिन महिमा' है।
समति ने भक्ति बनकर जिस आराध्य को साधा वह निराकार था और साकार भी, एक था और अनेक भी, निर्गुण था और सगुण भी । इसी कारण जैन कवियों ने सूरदास की भाँति 'सगुण' का समर्थन करने के लिये 'निर्गुण' का खण्डन नहीं किया और निर्गुण की अराधना के लिये सगुण राम पर रावण की हत्या का आरोप नहीं लगाया। वे निर्द्वन्द्व हो दोनों के गीत गा सके। कवि बनारसीदास ने "निराकार चेतना कहावै दरसन गुण, साकार चेतना शुद्ध ज्ञान गुण-सागर है । चेतना अद्वैत दोउ चेतन दरब माहि, सामान्य-विशेष सत्ता ही को गुणसार है" ।' कहकर एक ही चेतन को दर्शन गुण से युक्त होने के कारण निराकार और ज्ञान गुरण-सागर होने से साकार माना। उन्होंने दूसरे स्थान पर "नाना रूप भेष धरे भेष को न लेस धरे, चेतन प्रदेस धरे चेतना को खंध है।"२ लिखते हए भी वह ही बात कही। उन्होंने ब्रह्मा के 'एकानेक' वाले पहल को तो अनेक दृष्टान्तों से पुष्ट किया है। उन्होने लिखा कि जैसे महि मण्डल में नदी का प्रवाह तो एक ही है, किन्तु नीर की ढरनि अनेक भांति की होती है, जैसे अग्नि तो एक ही है, किन्तु तृन, काठ, बांस, पारने और अन्य ईधन डालने से वह नाना प्राकृति धारण करती है, जैसे नट एक ही है, किन्तु नाना भेष धारण करने से वह नानारूप दिखाई देता है, ठीक वैसे ही एक 'यात्म ब्रह्म' पुद्गल के संयोग से अनेक रूप धारण करता है। इसी भाँति उन्होंने एक ही ब्रह्म को "निर्गण रूप निरञ्जन देवा सगरण स्वरूप करें विधि सेवा।"४ लिख कर निर्गण कहा और सगुण भी। इन्ही को प्राचार्य योगीन्दु ने 'निष्कल' और 'सकल' की संज्ञा से अभिहित किया था। निष्कल वह है जो 'पञ्चविध शरीर रहित'५ हो, सकल वह है जो कुछ समय के लिये ही सही, शरीर सहित हो। भगवान् सिद्ध 'निष्कल' है और अहंन्त 'सकल' ब्रह्म। ब्रह्मत्व की दृष्टि से दोनों
१. नाटक समयसार, मोक्ष द्वार, दसवाँ पद्य, पृष्ठ ८२ । २. वही बंधद्वार, ५४ वाँ पद्य, पृष्ठ ७८ । ३. वही, बन्ध द्वार । ३५, जीव द्वार । ८ और मोक्षद्वार । १४ । ४. शिव पच्चीसी, ७ वाँ पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृष्ठ १५० । ५. 'पंचविध शरीर रहितः निष्कल ,' ब्रह्म देव की टीका, योगीन्दु कृत परमात्मप्रकाश,
१।२५, पृष्ठ ३२ ।
ទី១ ទី២ ទី១-ទី១១
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