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गुप्ति त्रिशूल, कंठ विभाव, विषम-विष और सजम ही जटाये हैं। जिनेंद्र शंकर की भाँति ही सहज सुख का भोग करने वाले हैं। जिस भाँति शंकर दिगम्बर योगी कहलाते हैं, वैसे ही जिनेन्द्र भी हैं । उनका ब्रह्मसमाधि-ध - ध्यान ही शंकर का घर है । वहाँ निरन्तर अनाहत नाद होता है, वही मानों डमरू बजता रहता है । ' ऐसे जिनेन्द्र रूपी शिव की भक्त पूजा करता है । उसका समरसी भाव ही अभिषेक करने का जल है, उपशम ही घिस - घिस कर लगाने का चन्दन रस है । सहजानन्द पुष्प हैं, जिनसे गुथी जयमाला भगवान् के चरणों में सदैव समर्पित की जाती है। ज्ञान ही दीप शिखा है, स्याद्वाद घन्टा की झनकार है, क्षायक भाव धूप है, निश्चय दान अर्घ्यविधि है, सहजशीलगुण प्रक्षत हैं, भगवान् के रस में पगना ही नेवजों का चढ़ाना है और विमल भाव फल हैं। इस सामग्री के साथ जो ध्यान-मग्न होकर, अपने को तल्लीन कर, शिव की पूजा करता है, वह प्रवीरण साधक इस जग में शिव-स्वरूप हो जाता है, अर्थात् स्वयं शिव बन जाता है। जिस प्रकार विद्यापति की राधा तादात्म्य की दशा में कृष्ण बन गई, वैसे ही भक्त भी तल्लीनता के कारण स्वयं शिव बन जाता है ।
"जो ऐसी पूजा करें, ध्यान मग्न शिव लीन ।
शिव स्वरूप जग में रहे, सो साधक परवीन ॥ " 3
एक दूसरे स्थान पर भी उन्होंने शिव रूप जिनेन्द्र की वन्दना की है। वह 'विधान' पर रहता है प्रर्थात् उसने शिवत्व प्राप्तकर लिया है और वह अपने प्रकाश से प्रकाशवन्त है । उसका अपना प्रकाश श्रात्म-ज्योति है, जिसे दिव्य प्रकाश भी कहते हैं । इसके कारण वह सब पदार्थों में मुख्य माना जाता है । कलंक तो उसका स्पर्श भी नहीं कर पाता । निष्कलंक होकर ही वह शिव-लोक का वास प्राप्त कर सका है। उसे परम सुख उपलब्ध है । कलंक दुःख का कारण है, जब वह ही न रहा तो दुःख भी कैसे रह पाता । दुःख का नितान्त प्रभाव ही सुख है । सुख और शिव पर्यायवाची हैं। वह अन्तर्यामी भी है, अर्थात् विश्वव्यापी है । जीव और अजीव सबके घट-घट की जानता है । ऐसे शिव की वन्दना करने के लिये पात्रता की आवश्यकता है । अर्थात् भक्त को शिवगामी होना चाहिए | इसके लिए एक विशेष परिभाषिक शब्द है-भव्य । वही जीव भव्य होता
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१. शिवपच्चीसी, पद्य १२ - १६, बनारसीविलास, जयपुर, पृष्ठ १५०-५१ ।
२. वही, पद्य ८ - १०, बनारसीविलास, जयपुर, पृष्ठ १५० ।
३. वही ११ वां दोहा, पृष्ठ १५० ।
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