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पशाब
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वीतराग महावीर द्वीपालसा नाम के चैत्य में ठहरे थे, जो तीर्थकर पार्श्वनाथ के नाम पर पार्श्वचैत्य कहलाता था।'
___ इसके अतिरिक्त नाथ सम्प्रदाय में 'पाई-पंथ' भी समाविष्ट हुआ था। इस पंथ के अनुयायियों का एक दल पीर-पारसनाथ की पूजा करता था । ये पीर पारसनाथ 'पार्श्वनाथ' ही हैं। मेरा दृढ विश्वास है कि नाथ-सम्प्रदाय' का नाम जैन तीर्थकरों के अन्तिम 'नाथ' शब्द के आधार पर ही रखा गया होगा। इससे प्रमाणित है कि जैन अपभ्रंश और नाथ पंथियों का सुदूरवर्ती मूल स्रोत एक ही है ।
मूल स्रोत को एक मानने पर भी जैन और अजैन सत कवियों में अन्तर है । अधिकांशतया अजैन संत निम्नवर्ग में उत्पन्न हुए थे, किन्तु जैन संतों का जन्म और पालन-पोषण उच्चकुल में हुआ था । अत. जैन सतो के द्वारा जाति-पाति के खंडन में अधिक स्वाभाविकता थी। उन्होने जन्मत. उच्च गोत्र पाकर भी, समता का उपदेश दिया। यह उस समय के उच्चकुलीन अह के प्रति एक प्रबल चुनौती थी। अजैन संत आजीविका के लिए कुछ-न-कुछ अवश्य करते थे; किन्तु जैन सतों में मूरि, उपाध्याय और भट्टारकों की प्रधानता थी। जैन-सत पढ़े-लिखे थे, उन्होने जैन साहित्य का विधिवत् अध्ययन किया था । निर्गुरणवादी सतो की भाँति न तो उनकी बानी अटपटी थी और न भाषा विखल । उनका भाव-पक्ष सबल था और बाह्यपक्ष भी पुष्ट ।
कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और जैन मत भगवान् सिद्ध के । कबीर ने ब्रह्म को निर्गुण कहकर उसकी निराकारता और अव्यक्तता सिद्ध की है। वैसे वे भी निर्गुण ब्रह्म में गुरणों की प्रतिष्ठा स्वीकार करते है । किन्तु उन्होने ब्रह्म के गुणों का न तो मयुक्तिक विभाजन किया है और न वे एक अनुक्रम में उनकी भावात्मक अभिव्यक्ति हो कर सके है। जैन हिन्दी कवियो ने सिद्ध को निराकार और अव्यक्त मानते हुए भी, उनके पूर्व-निरूपित आठ गुणों का काव्यात्मक भावोन्मेष किया है। बनारसीदास और भैया भगवतीदास ने सिद्ध को ही ब्रह्म कहा है । 'भैया' का कथन है
जेई गुग सिद्ध माहि तेई गुण ब्रह्म पांहि । सिद्ध ब्रह्म फेर नाहि निश्चय निरधार कै ।।
I. Dr. Hermann Jacobi, stules in Jainism, Jinvijai Muni Edited,
Jaina Sahitya Samsodhaka Karyalaya, Ahmedabad 1946, P. 5, F. 8.