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"सही ए री ! दिन आज सुहाया मुझ भाया पाया नहीं घरे। सहि ए री! मन उदधि अनन्दा सुख-कन्दा चन्दा देह धरे ।। चन्द जिवां मेरा बल्लभ सोहै, नैन चकोरहिं सुक्ख कर। जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दुख तिमिर-वितान हरै।। सहु काल विनानी अमृतवानी, अरु मृग-लांछन कहिए। श्री शान्ति जिनेश नरोत्तम को प्रभु, आज मिला मेरी सहीए ॥"'
जगराम, देवाब्रह्म, कुमुदचन्द्र, द्यानतराय और रूपचन्द प्रादि के पदसाहित्य में ऐसे 'विवाहला' बिखरे हुए है। उनका संकलन मैंने किया है। 'गुजराती और राजस्थानी के जैन साहित्य में भी इस प्रकार के अनेक विवाह-काव्य रचे गये । गुजराती के प्रसिद्ध लेखक मोहनलाल दुलीचन्द देशाई के 'जैन गुर्जर कविप्रो' में ऐसे अनेक 'विवाहलों' की चर्चा की गई है। इस विवेचन से, पं० परशुराम चतुर्वेदी की यह मान्यता कि भारतीय मधुरोपासना में उपासक और उपास्य केवल प्रेमिका और प्रेमपात्र वाले रूप तक ही सीमित थे, उसमें वैध विवाह प्रावश्यक नही माना जाता था, निराधार प्रमाणित हो जाती है। यहाँ तो सुमति का चेतन से विवाह ही नही हुप्रा, अपितु उसने एक पतिव्रता-सा जीवन भी बिताया । दोनो में भावात्मक पहलू पर अधिक बल दिया गया है, किन्तु इससे पति-पत्नी वाले सम्बन्ध का निराकरण नही हो जाता।
वनारसीदास ने जिस प्रेम की प्रतिष्ठा की, वह नितान्त अहैतूक था। 'अहैतुक' का अर्थ है-बिला शर्त का समर्पण । ऐसा किये बिना परमात्मा मिलता नहीं। एक बार बसन्त ने एक साधु से पूछा-महात्मन् ! यदि भगवान का सब जगह संचरण है तो हमें उसकी पद-ध्वनि क्यों सुनने को नहीं मिलती ? साधू ने उत्तर दिया कि वह चीटी के पैर से भी अधिक धीमी होती है । और, तुम में कहीं कोयल कूकती है, कही भ्रमर गूजते हैं, कही हंस किलोल करते है तथा कही कलियाँ चटखती हैं, इस शोर-गुल में तुम भगवान् को कैसे सुन सकते हो । इस सबको बन्द करो । भगवान् की पद चापे, तुम्हारे कानां में आने लगेंगीं । बसन्त ने कहा-साधो! इस आयोजन की समाप्ति तो मेरा अन्त है । इनसे मिलकर ही तो जन्मा हैं। इनके बिना मै क्या हूँ-क्या रहूँगा? तो साधु ने मुसुकरा कर कहा-जव तुम
१, श्री शान्ति जिन स्तुति, प्रथम पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १८६ । २. देखिये, 'रहस्यवाद',पं० परशुराम चतुर्वेदी,पृ० ८५,बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद्,पटना-४।
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