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कुछ न रहोगे, अर्थात् जब तुम्हारा ग्रहं मिट जायेगा, तभी तो भगवान् को पा सकोगे । तात्पर्य है कि बिला शर्त के पूरा समर्पण हो तभी परमात्मा मिल सकता है, अन्यथा नहीं। कबीर ने भी ब्रह्म को प्राप्त करने के लिये मन को 'बिसमिल' करने और सिर देने की बात स्वीकार की थी। उन्होंने सिर दिया और नाना प्रकार से दिया । कभी कहा "सीस उतारं भुइ धरै, तब पेठं घर माहि", तो कभी बताया कि प्रभु का प्रेमरस रसायन की भाँति रसीला होता है, किन्तु, "कबीर पीवरण दुर्लभ है, मांगे सीस कलाल ।" कलाल की भट्टी जल रही है, उस पर प्रभु भक्ति रूपी मदिरा तैयार हो रही है, बहुत जन माकर बैठ गये हैं पर, "सिर सौंपे सोई पिर्व, नहीं तो पिया नहीं जाय ।"" सिर सौंपने का अर्थ है कि दिव्य वस्तु पाने के लिये निःशेष हो जाना, फिर 'शर्त' तो स्वतः ही रह गई । उसके लिये स्थान ही नहीं बचा ।
बनारसीदास की आत्मा भी अपना खोकर ही पियसों मिली । ऐसे मिली जैसे प्रोला गलकर पानी में मिल जाता है । ऐसे मिली जैसे बूंद दरिया में समा जाती है। प्रोला ने अपना अस्तित्व खोया और बूंद ने भी ऐसा किये बिना वे उसमें न समा पाते । उनमें समाने की चाहना ही मुख्य थी । वहाँ बदले की भावना कभी न आ पाई। उन्होंने यह कभी न कहा कि हम अपना कुछ अंश तुम्हें देते हैं उसके बदले में हे शिव ! तुम हमें सांसारिक सुख दे दो । सांसारिक सुख तो जहाँ-तहाँ रहा, उन्होंने तो मुक्ति भी न माँगी । भव भव में भक्ति की ही याचना की, अर्थात् भव भव में अपना पूर्ण समर्पण ही उन्होंने करना चाहा । यह बात केवल बनारसीदास ने ही नहीं, अपितु हिन्दी के अन्य जैन कवियों ने भी कही । उपाध्याय जयसागर ( १५ वीं शती) ने 'चतुविशति जिन स्तुति' में भगवान् महावीर से प्रार्थना की है, "करि पसाउ मुझ तिम किमई, महावीर freeराय । इरिण भवि हवा अन्न भवि, जिम सेवउंतु पाय ॥' - कवि जयलाल (१६ वीं शती) ने तीर्थकर विमलनाथ की स्तुति में लिखा है, “तुम दरसन मन हरषा, चंदा जेम चकोर जी । राजरिधि मांगउं नहीं, भवि भवि दरसन तोरा जी" ||" भूधरदास भगवान् को देखकर ऐसे मुग्ध हुए कि
भव भव में भक्ति की
१. कबीर ग्रन्थावली, डा० श्यामसुन्दरदाम सम्पादित, का० ना० प्र० सभा, बाराणसी, १३६, ४५/१६, ६२, ६३ ।
२. जैन गुर्जर कविप्रो, तीजो माग, पृष्ठ १४७६ ।
३. मुनि जयलाल, विमलनाथ स्तवन, १३ व पद्य, श्री कामता प्रसाद जैन के संग्रह की हस्तलिखित प्रति ।
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