Book Title: Jain Shodh aur  Samiksha
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 159
________________ 1000 04 मानन्द-विमोहित हो उठा। जैन कवि द्यानतराय की प्रात्मारूपी दुलहिन ने ज्यों ही ब्रह्म के दर्शन किये कि चारों ओर फूला हुआा बसन्त देखा, जिसमें उसका मनमधुकर सुखपूर्वक रमने लगा ।' पिय के साथ ही बसन्त के माने और चतुर्दिक में is a fart होने की बात बनारसीदास ने 'अध्यात्मफागु' में भी लिखी है । " विषम विरष पूरो भयो हो, प्रायो सहज बसन्त । प्रगटी सुरुचि सुगन्धिता हो, मन मधुकर मयमन्त ॥ " "12 बनारसीदास का प्रेम भाव 'प्राध्यात्मिक विवाह' के रूप में भी प्रस्फुटित हुआ है । ये विवाह दो तरह के होते हैं-एक तो जब किसी श्राचार्य का दीक्षाग्रहण के समय दीक्षाकुमारी या संयमश्री के साथ सम्पन्न होता है और दूसरा वह जब आत्मारूपी नायक साथ उसी के किसी गुरण रूपी कुमारी की गाँठें जुड़ती हैं । प्रथम प्रकार के विवाहों का वर्णन करने वाले कई रास ऐतिहासिक काव्य संग्रह ' " में संकलित है। दूसरे प्रकार के विवाहों में सबसे प्राचीन जिनप्रभसूरि का 'अन्तरंग विवाह' प्रकाशित हो चुका है। इसी के अन्तर्गत वह दृश्य भी आता है जबकि प्रात्मा रूपी नायक 'शिवरमग्गी' के साथ विवाह करने जाता है । अजयराज पाटणी का 'शिवरमणी विवाह' १७ पदों का एक सुन्दर रूपक काव्य है । कवि बनारसीदास ने भी तीर्थङ्कर शान्तिनाथ का शिवरमरणी से विवाह दिखाया है । शान्तिनाथ 'विवाह मण्डप' में प्राने वाले हैं । होने वाली वधू की उत्सुकता दबाये नही दबती । वह अभी से उनको अपना पति मान उठी है । वह अपनी सखी से कहती है, "हे सखी ! आज का दिन अत्यधिक मनोहर है, किन्तु मेरा मन भाया अभी तक नही आया । वह मेरा पति सुख-कन्द है, और चन्द्र के समान देह को धारण करने वाला है, तभी तो मेरा मन - उदधि आनन्द से प्रान्दोलित हो उठा है । और इसी कारण मेरे नेत्र चकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं। उसकी सुहावनी ज्योति की कीर्ति ससार में फैली हुई है। वह दुःख-रूपी अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाली है। उनकी वाणी से अमृत भरता है । मेरा सौभाग्य है जो मुझे ऐसे पति प्राप्त हुए ।" १. तुम ज्ञान विभव फूली बसन्त, यह मन मधुकर मुख सों रमन्त । -द्यानत पद संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ५८ वाँ पद, पृ० २४ । २. श्राध्यात्मफाग, दूसरा पद्य, बनारसी विलास, जयपुर, पृ० १५४ । ३. 'जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह' श्री अगरचन्द नाहटा द्वारा सम्पादित होकर कलकत्ता से वि० सं० १६६४ में प्रकाशित हुआ था । ४. इसकी हस्तलिखित प्रति, जयपुर के श्री बधीचन्द जी के जैन मन्दिर के गुटका न० १५८, वेस्टन नं० १२७५ में निबद्ध है । 5555555 ११७ 55555555

Loading...

Page Navigation
1 ... 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246