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सुश्रद्धा ही दिव्य दृष्टि है । जिन्हें वह प्राप्त नहीं, वे ब्रह्म को पाने में भी समर्थ नहीं। दिव्य दृष्टि की भूमिका में ज्ञान महत्वपूर्ण पार्ट अदा करता है; किन्तु वह भी सुश्रद्धा से समन्वित होता ही है, ऐसा हुए बिना ज्ञान 'सम्यक्' पद air afrकारी नहीं हो पाता । 'सम्यक्' ही 'दिव्य' है, यदि वह है तो वह है, वह नहीं तो वह भी नहीं। दोनों एक हैं। जैन दर्शन के प्रसिद्ध सूत्र 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रारिण मोक्षमार्गः' में 'सम्यग्दर्शन' पहले है, 'सम्यक्ज्ञान' बाद में । दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और दर्शन का अर्थ है श्रद्धान् । श्रतः श्रद्धा के बिना ज्ञान नहीं होता और सुश्रद्धा के बिना सुज्ञान नही । सुज्ञान ही दिव्य दृष्टि है । ऐसे ज्ञान की बात महात्मा तुलसीदास ने भी स्वीकार की थी। उन्होंने गीतावली में लिखा है कि रावरण के साथ युद्ध में घायल जटायु को गोद में रख कर राम विलाप कर उठे । राम चाहते थे कि पितृ-तुल्य जटायु जीवित रहे । वे उसे अधिक जीवन-दान देने को तैयार थे। किन्तु जटायु ने कहा, "जिस भगवान् को, बड़े-बड़े वेदाध्यीती- ज्ञानी मुनि, योगी और शत-शत वर्षों से तप में निरत तपी अपने ध्यान में एक क्षरण को भी नहीं देख पाते, उसे मरते समय प्राप्त करना मुझ जैसे जन के लिये दुर्लभ ही है, अतः मुझे मृत्यु श्रेयस्कर है ।"" और वह जटायु भगवान् के अश्रु-जल से अभिषिक्त होता स्वर्ग की राह लगा । इससे स्पष्ट है कि एक हीन जाति का जीव भगवान् को पाने में समर्थ हो सका, जबकि उच्च व के मुनि उसे एक पल के लिये ध्यान में भी न ला सके। इसका तात्पर्य है कि जो पावन श्रद्धा जटायु में थी वह ज्ञानी ध्यानी मुनियों में नही थी, इसी कारण वे ज्ञान की गरिमा और तप की ऊष्मा के बल पर भी आराध्य को उपलब्ध न कर सके । सुश्रद्धा के अभाव में उनका ज्ञान कोरा प्रमाणित हुआ । उसकी निरर्थकता स्पष्ट ही है । यहाँ पर भी बनारसी का “बुद्ध लखे न लखे दुरबुद्ध" जैसे मुखर हो उठा है । कबीर का “पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुना पण्डित भया न कोइ " में 'पण्डित' बनारसी के 'बुद्ध' का पर्यायवाची है। पोथियाँ पढ़कर कोई पण्डित नहीं हो सकता । पण्डित बनने के लिये ' राम ' के दो श्राखर दिल में लाने होंगे । इस प्रकार कबीर ने भी सुश्रद्धा की ही बात की है ।
बनारसीदास ने 'सद्बुद्धि' को 'राधिका' कहा है। राधा कृष्ण की प्रेमिका श्री । वह उनके साथ रासलीला रचाती थी, गौयें चराने बन में जाती थी, मुरलीवादन में शामिल होती थी । जब कृष्ण मधुरा चले गये तो विरह-प्रपीड़िता राधा दिन-रात कृष्ण-कृष्ण की सुध में बे-सुध रहने लगी। विरह ने उसके प्रेम
१. देखिये तुलसीकृत गीतावली ।
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